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________________ ५८. जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ ६८०. मणुसगईए मणुसेसु मणुसपज्ज०-मणुसिणि मोह विहसि केव०खेत्ते०? लोग० असंखे० भागे। अविहत्ती० ओघभंगो। एवं पचिंदिय-पचिंदियपज्ज-तसतसपज्ज०-अवगदवेद०-अकसा०-संजद-जहाक्खाद०-सुक्क०-सम्मादि०-खइयसम्मादिष्ठि होते हैं तब भी इनका सर्व लोक क्षेत्र पाया जाता है। इस प्रकार इनका मारणान्तिक समुद्धात और उपपाद पद की अपेक्षा सर्व लोकमें वर्तमान निवास बन जाता है। नम्बर पांचके एकेन्द्रिय सूक्ष्म आदि जीव अपने पांचों पदोंसे सर्वलोकमें रहते हैं। इस कोष्ठकके अनुसार सभी जीवोंका जिन पदोंकी अपेक्षा सर्व लोक क्षेत्र नहीं पाया जाता है, वह प्रकृतमें उपयोगी नहीं है इसलिये नहीं लिखा है। विशेष जिज्ञासुओंको उसे क्षेत्रानुयोग द्वारसे जान लेना चाहिये। ६८०.मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें मोहनीयविभक्तिवाले मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। मोहनीय अविभक्तिवाले उक्त जीवोंका कथन ओघके समान है। इसीप्रकार पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, अपगतवेदी, अकषायी, संयत्त, यथाख्यातसंयत, शुक्ल लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसन्यग्दृष्टि जीवोंके कथन करना चाहिये। विशेषार्थ-इन उपर्युक्त मार्गणाओंमें स्थित जीवोंमें किनके कितने पद होते हैं, इसका ज्ञान करानेके लिये नीचे कोष्ठक दिया जाता है स्व. वि. स्व. वे. | क. वै. | तै. आ. के. मा. उ. | मनुष्य पर्याप्त, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, " " " " " " " " " त्रस पर्याप्त,शुक्ललेश्या, सम्यग्दृष्टि,क्षायिक स. संयत मनुष्यनी अकषायी, अपगतवेदी, ,, यथाख्यात संयत मोहनीय विभक्तिवाले और मोहनीय अविभक्तिवाले ये सभी जीव केवलि समुद्धातके प्रतर और लोक पूरणरूप अवस्थाओंको छोड़कर शेष संभव सभी पदोंके द्वारा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं। तथा उक्त सभी जीव प्रतरसमुद्धातकी अपेक्षा लोकके असंख्यात बहुभागोंमें और लोकपूरण समुद्धातकी अपेक्षा सर्वलोकमें रहते हैं। ... मोहनीय विभक्तिवाले बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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