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________________ maharanaamanaranaanar.mahaaranaparmananmara.marnamann........................ www................. जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ सव्वएइंदिय-पुढवि०-चादरपुढवि०- बादरपुढवि अपज्जत्त-आउ०- बादरआउ०-बादरआउ० अपज्ज०-तेउ०-बादर तेउ०-बादरतेउ० अपज०-वाउ०-वादरवाउ०-बादरवाउ०अपज०-सुहुमपुढवि०-सुहुमपुढवि०पज्ज०-सुहुमपुढवि० अपज सुहुमआउ०-सुहुमआउ०पज्ज०-सुहुमआउ० अपज्ज०-सुहुमतेउ०-सुहुम तेउ०पज्ज०- सुहुमतेउ०अपज्ज०-सुहुमवाउ०-सुहुमवाउ०पज्ज०-सुहुमवाउ०अपज०-वणप्फदि०-बादरवणप्फदि०-बादरवणप्फदि० पज्जतापज्जत-सुहुमवणप्फदि०-सुहुमवणप्फदि० पज्जत्तापज्जत्त-णिगोद०-बादर णिगोद०-बादरणिगोदपज्जत्तापज्जत्त-सुहमणिगोद-सुहुमणिगोदपज्जत्तापज्जत्त-णउंस०चत्तारिकसाय०-मदिसुदअण्णाणि-असंजद०-तिलेस्सा०-अभवसिद्धि०-मिच्छादि०असणि त्ति वत्तव्वं । लोकमें रहते हैं। इसी प्रकार सभी एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक,बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, अप्कायिक, बादर अप्कायिक,बादर अप्कायिक अपर्याप्त, दैजस्कायिक, बादर तेजस्कायिक, बादर तैजस्कायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म तेज कायिक, सूक्ष्म तेजकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म तेजकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म बनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, निगोद, बादरनिगोद, बादरनिगोद पर्याप्त, बादरनिगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त, सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त, नपुंसकवेदी, क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्ण, नील और कापोत ये तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके सर्वलोक क्षेत्र होता है। विशेषार्थ-इन उपर्युक्त मार्गणास्थानोंमें कहां कितने पद हैं इसका ज्ञान कराने के लिये पहले नीचे कोष्ठक दिया जाता है मार्गणा स्व.स्व. वि.स्व. वे. क. वैक्रि. ते. आहा. मा. | उ. | क्रोध,मान,माया व लोभ " । सामान्य तिर्यंच,नपुंसक, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्णादि तीन " " " " " लेश्यावाले, अभब्य, मिथ्यादृष्टि व असंज्ञी " '. - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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