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________________ गा० २२] वढिविहत्तीए सामित्ताणुगमो तत्तियमेत्तावठाणस्स विवक्खियत्तादो। एवमकमा०-सुहुमसांप०-जहाक्खाद० अभव०उवसम-सासण-सम्मामि० वत्तव्वं । अवगद० अस्थि संखेजभागहाणि-संखेजगुणहाणी-अवहाणाणि । एवमाभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज-संजद०-सामाइयछेदो०ओहिदसण-सम्मादि०-खइयसम्मादिहि त्ति वत्तव्यं । एवं समुक्त्तिणा समत्ता । ६४८७. सामित्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण संखेज्जभागवड्ढी-हाणि-अवहाणाणि कस्स ? अण्णदरस्स सम्मादिहिस्स मिच्छादिहिस्स वा । संखेज्जगुणहाणी कस्स ? अण्णदरस्स अणियष्टिक्ववयस्स । एवं मणुमतियपंचिंदिय-पंचिं०पज्ज०-तस-तसपज्ज०-पंचमण-पंचवाचि०- कायजोगि०-ओरालिय०पुरिस०-चत्तारिक०-चक्खु०-अचखु०-सुक्क०-भवसिद्धिय०-सण्णि-आहारीणं वत्तव्यं । अपेक्षाके बिना तावन्मात्र स्थानोंकी विवक्षासे समुत्कीर्तना है। इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसापरायिक संयत, यथाख्यात संयत, अभव्य, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । तात्पर्य यह है कि उक्त मार्गणाओं में जहां जो स्थान है वही रहता है वृद्धि और हानि नहीं होती, अतः यहां वृद्धि, हानि और अवस्थानका निषेध किया है। अब यदि इन मार्गणाओंमें वृद्धि और हानिके बिना अवस्थान स्वीकार किया जाय तो जहां जो स्थान होता है उसकी अपेक्षा अवस्थान स्वीकार किया जा सकता है। तथा उपशमसम्यग्दृष्टि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं करता इस अपेक्षासे यही उपशमसम्यग्दृष्टिके हानिका निषेध किया है। ___ अपगतवेदी जीवोंमें संख्यातभागहानि, संख्यातगुमहानि और अवस्थान ये स्थान हैं। इसी प्रकार मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये। इस प्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई । ४८७. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ' उनमेंसे ओघकी अपेक्षा संख्यातभागवृद्धि संख्यातभाग हानि और अवस्थान किसके होते हैं ? किसी भी सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीवके होते हैं। संख्यातगुणहानि किसके होती है ? किसी भी अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती क्षपक जीवके होती है । इसी प्रकार सामान्य, पर्याप्त और स्त्रीवेदी इन तीन प्रकारके मनुष्योंके और पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, पुरुषवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्ललेइयावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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