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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ विहत्ति० सम्वद्धा । अविहत्ति० जहण्णेण एगसमओ, उकस्सेण अंतोमुहुत्तं । ओरालिय-मिस्स० विहत्ति० सव्वद्धा । अविहत्ति० जहण्णेण एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया । एवं कम्मइय० । णवरि, अविहत्ति० जह• तिण्णि समया । वेउब्वियमि० विहशि० केव० ? जह० अंतोमुहुतं, उक्क० पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । आहार० विहत्ति० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवं सुहुमसांपराइय० । आहारमि० जहण्णुक्क० अंतोमु० । तात्पर्य है कि लब्धपर्याप्तकमनुष्य कमसे कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण कालतक और अधिकसे अधिक पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक निरन्तर अवश्य पाये जाते हैं इसके बाद उनका अन्तर हो जाता है। अतः इसी अपेक्षासे लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका उक्त काल कहा है। असत्य और उभय मनोयोगी तथा असत्य और उभय बचनयोगी जीवोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव सर्वदा होते हैं। तथा मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव सर्वदा होते हैं। तथा मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इसी प्रकार कार्मणकाययोगी जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि कार्मणकाययोगियों में मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका जघन्यकाल तीन समय है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें मोहनीयविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । आहारक काययोगी जीवों में मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार सूक्ष्मसांपरायिक संयत जीवोंके जानना चाहिये । आहारकमिश्रकाययोगियों में मोहनीयविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-नाना जीवोंकी अपेक्षा असत्य और उभय ये दोनों मनोयोग और ये ही दोनों वचनयोग सर्वदा पाये जाते हैं। अतः इनकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिवाले जीव सर्वदा होते हैं यह कहा है। तथा बारहवें गुणस्थानकी अपेक्षा उक्त योगोंमें मोहनीय अविभक्तिवाले भी जीव पाये जाते हैं । अतः जिन जीवोंके उक्त दोनों मनोयोगों और वचनयोगोंके कालमें एक समय शेष रहने पर बारहवां गुणस्थान प्राप्त हुआ है उनके उक्त योगोंकी अपेक्षा जघन्यकाल एक समय बन जाता है। तथा उक्त योगोंका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त होनेसे उसकी अपेक्षा मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। यहां यह शंका होती है कि बारहवें गुणस्थानमें योगपरावर्तन नहीं होता, अतः यहां उक्त दोनों मनोयोग और वचन योगोंका जघन्यकाल एक समय नहीं कहना चाहिये । उसका यह समाधान है कि यहां एक योगसे योगान्तर नहीं होता, यह ठीक है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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