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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पडिविहत्ती २ असणि ति सेससब्वमग्गणासु मोहणीयस्स अस्थि विहत्तिया अविहत्तिया मस्थि । एवं समुकित्तणा समत्ता । ४६ सादिय-अणादिय-धुव-अद्भुवाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओषेण आदेसेण य । तत्थ ओषेण मोहणीयविहत्ती किं सादिया किमणादिया किं धुवा किमबुवा । अणादिया धुवा अदुवा च । सादियपदं णस्थि; खविदमोहणीयसमुभवाभावादो। एक्मचक्खुदंसण-भवसिद्धिया० । णवरि भवसिद्धिया० अणादिया० (भवसिद्धियाणं) धुवपदं णस्थि । णिश्चणिगोदेसु मोहणीयस्स धुवत्तमस्थि त्ति णासंकणिजं; तेसि पि मोहविजीवोंके कहना चाहिये । अर्थात् इन जीवोंके मोहनीय कर्म पाया जाता है और नहीं भी पाया जाता है। नरकगतिसे लेकर असंज्ञी तक शेष समस्त मार्गणामोंमें मोहनीय विभक्ति वाले जीव हैं, मोहनीय विभक्तिसे रहित जीव नहीं हैं। विशेषार्थ-समुत्कीर्तना शब्दका अर्थ उच्चारणा है। इसमें विवक्षित धर्मकी अपेक्षा सामान्य और विशेषरूपसे जीवोंका अस्तित्व और नास्तित्व या सामान्य और विशेषरूपसे जीवोंमें विवक्षित धर्मका अस्तित्व और नास्तित्व बतलाया जाता है। ऊपर मोहनीय कर्मकी अपेक्षा कथन किया है। सामान्यसे मोहनीय कर्मसे युक्त और उससे रहित जीव है यह निर्देश किया है, क्योंकि उपशान्तमोह गुणस्थान तक सभी जीव मोहनीय कर्मसे युक्त होते हैं और क्षीणकषाय गुणस्थानसे लेकर सभी जीव उससे रहित होते हैं। तथा जिन मार्गणास्थानोंमें ये दोनों प्रकारकी अवस्थाएं संभव हैं उनकी प्ररूपणाको ओघके समान कहा है। ऐसी मार्गणाओंके नाम ऊपर ही गिना दिये हैं। और जिन नरकगति आदि मार्गणाओंमें क्षीणकषाय आदि गुणस्थान नहीं पाये जाते उनमें मोहनीयका अस्तित्व ही कहा है। इस प्रकार समुत्कीर्तना प्ररूपणा समाप्त हुई। ४६. सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव अनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीय विभक्ति क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है, क्या अध्रुव है ? मोहनीय विभक्ति अनादि, ध्रुव और अध्रुव है। मोहनीय कर्ममें ओघकी अपेक्षा सादि पद नहीं है क्योंकि जिसने मोहनीय कर्मका समूल नाश कर दिया है ऐसे क्षीणकषाय जीवके फिरसे मोहनीय कर्मकी उत्पत्ति नहीं होती है। इसी प्रकार अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंके कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि भव्य जीवोंके ध्रुवपद नहीं है। यदि कहा जाय कि जो भव्य जीव नित्यनिगोदिया हैं उनमें ध्रुवपद देखा जाता है सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उनके भी मोहनीयके नाश करनेकी शक्ति पाई जाती है। यदि उनके मोहनीयके नाश करनेकी शक्ति न मानी जाय तो वे भव्य न होकर अभव्योंके समान हो जायंगे। (१) 'धुबमद्धवणाईयं अट्ठण्हं मूलपगईणं' मूलपगतीणं संतकम्म तिविहं-अणादियधुवअधुवं । कहं ? धुबसंतकम्मत्तादेवादी पत्थि तम्हा अणादियं, धुवाधुवा पुवुत्ता ॥१॥ कर्मप्र० सत्ता०, पूणि पत्र २७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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