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________________ गा० २२] पयडिविहत्ती गमादो, अप्पाबहुगसाहणटं दव्व-परिमाणे भण्णमाणे तदवगमादो वा । तम्हा विरोहो णत्थि त्ति सिद्धं । * एदेसु अणिओगद्दारेसु परूविदेसु मूलपयडिविहत्ती समत्ता होदि। ६ ४३- जइवसहाइरिएण एदेसिमत्थाहियाराणं ण विवरणं कदं; सुगमत्तादो।। ४४. संपहि मंदबुद्धिजणाणुग्गहटमुच्चारणाइरियमुहविणिग्गयमूलपयडिविवरणं भणिस्सामो । तं जहा, समुक्कित्तणा सादियविहत्ती अणादियविहत्ती धुवविहत्ती अद्ध्वविहत्ती एगजीवेण सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ भागाभागं परिमाणं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं भावो अप्पाबहुगं चेदि । ४५. समुक्कित्तणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयस्स अत्थि विहत्तिया अविहत्तिया च । एवं मणुस्स-मणुसपज्जत्त-मणुस्सिणी[पंचिंदिय] पंचिंदियपज्जत्त-तस-तसपज्जत्त-पचमण०-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालिय०ओरालियमिस्स-कम्मइय०-अवगदवेद-अकसाइ-आभिणिबोहिय०-सुद०-ओहि०मणपज्जवणाणि-संजद-जहाक्खाद०-चक्खुदंसण-अचक्खुदंसण-ओहिदंसण-सुक्कलेस्साभवसिद्धिय-सम्मादिहि-खइय०-सण्णि-आहारि-अणाहारएत्ति वत्तव्यं । गेरइयादि जाव परिमाण कहने पर क्षेत्र और स्पर्शनका ज्ञान हो जाता है, इसलिये दोनों कथनोंमें कोई विरोध नहीं है, यह सिद्ध हो जाता है। * इन आठों अनुयोगद्वारोंका कथन कर चुकने पर मूलप्रकृतिविभक्ति नामका पहला अर्थाधिकार समाप्त हो जाता है। ४३. सुगम होनेसे यतिवृषभाचार्यने इन आठों अर्थाधिकारोंका विवरण नहीं किया है। $ ४४. अब मन्दबुद्धिजनोंका उपकार करनेके लिये उच्चारणाचार्य के मुखसे निकले हुए मूलप्रकृति के विवरणको कहते हैं। वह इसप्रकार है-समुत्कीर्तना, सादिविभक्ति, अनादिविभक्ति, ध्रुवविभक्ति, अध्रुव विभक्ति, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर तथा नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । $ ४५. इनमेंसे समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश | उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीयविभक्तिवाले और मोहनीय अविभक्तिवाले जीव हैं। इसीप्रकार मनुष्य सामान्य, मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यनी, पंचेन्द्रिय सामान्य, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, यथाख्यातसंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, संज्ञी, आहारक और अनाहारक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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