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________________ २२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । पयडिविहत्ती २ * मूलपयडिविहत्तीए इमाणि अट्ठ अणियोगद्दाराणि । तं जहासामित्तं कालो अंतरं गाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं भागाभागो अप्पाबहुगेत्ति । $ ४२६ उच्चारणाइरिएहि मूलपयडिविहत्तीए सत्तारस अत्थाहियारा जइवसहाइरिएण अहेव अत्थाहियारा परूविदा। कथमेदेसि दोण्हं वक्खाणाणं ण विरोहो ? ण, पअवष्टिय-दव्वष्ट्रियणयावलंवणाए विरोहाभावादो. कथमहहि सेसाहियारा संगहिया ? वुच्चदे । तं जहा, समुक्त्तिणा ताव पुध ण वत्तव्वा, संतेण विणा अण्हमहियाराणमत्थित्तविरोहादो। सादिय-अणादिय-धुव-अद्भुवअत्थाहियारा वि पुध ण वत्तव्वा; कालंतरेहि चेव तदत्थावगमादो। परिमाणं पि ण वत्तव्वं; अप्पाबहुगेत्ति तत्थ तस्स अंतब्भावादो। भावाहियारो वि ण वत्तव्यो; अणुत्तसिद्धीदो, मोहोदयविरहियाणं जीवाणं मुलपयडिसंताणुववत्तीदो। खेत्त-पोसणाणि च ण वत्तंव्वाणि; उवदेसेण विणा तदवअर्थ 'जिसमें विभाग किया जाता है उसे विभक्ति कहते हैं' यह होता है। * मूलप्रकृतिविभक्तिके विषयमें आठ अनुयोगद्वार हैं। वे इस प्रकार हैं-एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, भागाभाग और अल्पबहुत्व । ४२. शंका-उच्चारणाचार्यने मूल प्रकृतिविभक्तिके विषयमें सत्रह अर्थाधिकार कहे हैं और यतिवृषभाचार्यने आठ ही अर्थाधिकार कहे हैं, इसलिये इन दोनों व्याख्यानों में विरोध क्यों नहीं आता ? समाधान-नहीं, क्योंकि पर्यायार्थिकनय और द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन करनेपर उक्त दोनों कथनोंमें कोई विरोध नहीं आता है। शंका-आठ अधिकारोंके द्वारा शेष नौ अधिकारोंका संग्रह कैसे हो जाता है ? .. समाधान-इस शंकाका समाधान इस प्रकार है-समुत्कीर्तना नामक अधिकारको तो पृथक् नहीं कहना चाहिये, क्योंकि, सत्त्वके विना आठ अधिकारोंका अस्तित्व माननेमें विरोध आता है । सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव ये चार अर्थाधिकार भी पृथक् नहीं कहने चाहिये, क्योंकि, काल और अन्तर अर्थाधिकारके द्वारा ही सादि आदि अधिकारों के विषयका ज्ञान हो जाता है। परिमाण अधिकार भी पृथक नहीं कहना चाहिये, क्योंकि परिमाण अधिकारका अल्पबहुत्व अधिकारमें अन्तर्भाव हो जाता है। भावाधिकार भी पृथक् नहीं कहना चाहिये, क्योंकि, बिना कहे ही उसका अस्तित्व जाना जाता है, क्योंकि जो जीव मोहनीय कर्मके उदयसे रहित हैं उनके प्रायः मूल प्रकृति मोहनीयका सत्त्व नहीं पाया जाता है। क्षेत्र और स्पर्शन अधिकार भी नहीं कहने चाहिये, क्योंकि, उपदेशके विना ही क्षेत्र और स्पर्शनका ज्ञान हो जाता है। अथवा अल्पबहुत्वके साधन करनेके लिये द्रव्यका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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