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________________ २१ गा० २२ ] पपडिविहत्ती मेगो व सहावो ति आसंकणिजं; सम्मत्त-चरिच-विणासणसहावं मोहणिजं, णाणपच्छावणसहावं जाणावरणिशं, दंसणविणासण-सहावं दंसणावरणिजं, सुह-दुक्खुप्पायणसहावं वेयणीयं, भवधारणसहावमाउअं, सरीर-गइ-जाइ-वण्णादिणिप्पायणसहावं णामकम्म, उप-जीचमोत्तेसुप्पायणसहावं मोदं, विग्धकरणम्मि वावदमंतराइयं; एवमहण्हं पि कम्माणं पयडि विहत्तिदंसणादो। विहत्तिसद्दो कथं कम्मदव्वम्मि वढदे ? ण, आहियरणम्मि उप्पाइयस्स विहत्तिसहस्स तत्थ वत्तणे विरोहाभावादो। ही विवक्षित है। आठों प्रकृतियोंका एक ही स्वभाव है ऐसी भी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि सम्यक्त्व और चारित्रका विनाश करना मोहनीयका स्वभाव है, ज्ञानका आच्छादन करना ज्ञानावरणका स्वभाव है, दर्शनका विनाश करना दर्शनावरणका स्वभाव है, सुख और दुःखको उत्पन्न करना वेदनीयका स्वभाव है, मनुष्य आदि पर्यायमें रोक रखना आयु कर्मका स्वभाव है, शरीर, गति, जाति और वर्णादिकको उत्पन्न करना नामकर्मका स्वभाव है, ऊंच और नीच गोत्रमें उत्पन्न कराना गोत्रकर्मका स्वभाव है और विघ्न करनेमें व्यापार करना अन्तरायकर्मका स्वभाव है। इस प्रकार आठों कर्मों में स्वभावभेद देखा जाता है। शंका-भाववाची विभक्ति शब्द द्रव्यवाची.कर्मके अर्थ में कैसे रहता है ? समाधान-अधिकरण साधनमें व्युत्पादित विभक्ति शब्द द्रव्यकर्म में रहता है, ऐसा मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। विशेषार्थ-ऊपर यह शंका उठाई गई है कि विभक्ति शब्द द्रव्य कर्ममें कैसे रहता है। इस शंकाका यह आशय प्रतीत होता है कि 'विभजनं विभक्तिः' इस प्रकार निरुक्ति करनेसे वि उपसर्ग पूर्वक भज् धातुसे भाव में 'खियां क्तिन्' इस सूत्रसे क्तिन् प्रत्यय करने पर विभक्ति शब्द बनता है। जिसका अर्थ विभाग करना होता है। पर प्रकृतमें द्रव्यकर्म मोहनीयके स्थानमें या उसके साथ विभक्ति शन्द आता है जो उपयुक्त नहीं है, क्योंकि मोहनीय द्रव्यकर्म शब्द द्रव्यवाची है अतः उसके स्थानमें या उसके साथ भाववाची विभक्ति शब्दका प्रयोग नहीं किया जा सकता। इस शंकाका वीरसेनस्वामीने इस प्रकार समाधान किया है कि प्रकृतमें जो विभक्ति शब्द आता है वह भावमें व्युत्पादित विभक्ति शब्द न होकर अधिकरणमें व्युत्पादित विभक्ति शब्द है। अतः द्रव्यकर्मके स्थानमें या विशेषणविशेष्यभावरूपसे द्रव्य कर्मके साथ विभक्ति शब्दके प्रयोग करनेमें कोई आपत्ति नहीं है। जब 'कर्मण्यधिकरणे च' इस सूत्रसे 'स्त्रियां क्तिन्' इस सूत्र में 'अधिकरणे' इस पदकी अनुवृत्ति कर लेते हैं सब अधिकरणमें भी विभक्ति शब्द बन जाता है। ऐसी हालतमें विभक्ति शब्दकी निरुक्ति 'विभज्यतेऽस्यामिति विभक्तिः' यह होगी। जिसका (१)-हावं (१० ....४) करणम्मि-स०, म०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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