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________________ १६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ ३१. एदासु विहत्तीसु बहुवियप्पासु एदीए विहत्तीए पओजणं ति जाणावणहं उत्तरसुत्तमागदं। * जा सा दव्वविहत्तीए कम्मविहत्ती तीए पयदं । ३२. 'जा सा' इदि वयणेण दव्वविहत्ती संभालिदा। सा दुविहा, कम्मविहत्ती णोकम्मविहत्ती चेदि । तत्थ दव्वविहत्ती वि जा कम्मविहत्ती तीए कम्मविहत्तीए पयदं । * तत्थ सुत्तगाहा । ... ६३३. जइवसहाइरिओ अप्पणो भणिदपण्णारसअस्थाहियारेसु चुणिसुत्तं भणंतो सगसंकप्पियअत्थाहियारे गाहासुतम्मि संदंसणटं ' तत्थ सुत्तगाहा उच्चदि' त्ति भणदि। द्वारा सूचित किया है। द्रव्य विभक्तिमें प्रदेश भेदसे द्रव्य भेद, क्षेत्र विभक्ति में क्षेत्रकी न्यूनाधिकतासे द्रव्यभेद, कालविभक्तिमें समयादिककी न्यूनाधिकतासे द्रव्यभेद, गणना विभक्तिमें संख्याभेद, संस्थानविभक्तिमें आकारभेद और भाव विभक्तिमें औदयिक आदि भावभेद लिये गये हैं। अविभक्तिमें इन सबकी समानता ली गई है और एक साथ विभक्ति और अविभक्ति दोनोंकी अपेक्षा अवक्तव्यताका ग्रहण किया है। ये सब द्रव्यविभक्ति आदि कर्मविभक्तिके नो कर्म हैं अतः इनका यहां इसी रूपसे कथन किया है। कर्म विभक्तिका आगे विस्तारसे कथन किया ही है इसलिए यहां उसके विषयमें कुछ भी नहीं लिखा है। फिर भी प्रकृतमें कर्मविभक्तिसे ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंके एक भेदरूप मोहनीयकर्मका ग्रहण करना चाहिये। मोहनीय कर्मके साथ विभक्ति शब्दके जोड़ने की सार्थकता इसीमें है । यद्यपि इस विषयमें आगे और भी अनेक समाधान पाये जाते हैं पर हमारी समझसे उनमें यह समाधान मुख्य है। ३१. अब अनेक प्रकारकी इन विभक्तियों में से प्रकृतमें अमुक विभक्तिसे प्रयोजन है, यह बतलानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं । ___ * द्रव्यविभक्तिके दो भेदोंमें जो कर्मविभक्ति कह आये हैं प्रकृत कषायप्राभृतमें उससे प्रयोजन है। ३२. चूर्णिसूत्रमें आये हुए 'जा सा' इस बचनसे द्रव्यविभक्तिका निर्देश किया है। वह द्रव्यविभक्ति कर्मविभक्ति और नोकर्मविभक्तिके भेदसे दो प्रकारकी है। उनमेंसे जो कर्मविभक्ति नामकी द्रव्यविभक्ति है प्रकृत कषायप्राभृतमें उससे प्रयोजन है । * अब इस विषयमें सूत्रगाथा देते हैं। ३३. अपने द्वारा स्वयं कहे गये पन्द्रह अर्थाधिकारोंमें चूर्णिसूत्रोंका कथन करते हुए यतिवृषभ आचार्य अपने द्वारा माने गये अधिकारोंको गाथासूत्रमें दिखानेके लिये यहां सूत्रगाथा देते हैं' इस प्रकार कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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