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________________ गा० २२ ] बिहत्तीए णिक्खेमो तिण्णि तिणि भंगा कहिदा तत्थ दोण्हं दोण्हं चेव भंगाणं गहणं कायव्वं, अविभत्तीए ण गहणं । कुदो ? विहत्तिणिक्खेवे कीरमाणे विहत्तिविरुद्धत्थस्स गहणाणुववत्तीदो। जदि एवं, तो अवत्तव्वभंगो वि ण घेत्तव्यो; तत्थ विहत्तीए अत्थाभावादो। ण; विहत्तीए विणा दुसंजोगाभावेण अवत्तव्यभावाणुववत्तीदो। विहत्ती-अविहत्तीणं संजोगो कथं विहत्ती होदि ? ण, कथंचि भेदो अस्थि त्ति अवत्तव्वस्स वि विहत्तिभावुवलंभादो।। इनमेंसे प्रत्येकके जो तीन तीन भंग कहे हैं उनमेंसे दो दो भंगोंका ही प्रहण करना चाहिये अविभक्तिका ग्रहण नहीं करना चाहिये, क्योंकि विभक्तिका निक्षेप करते समय विभक्तिसे विरुद्ध अविभक्तिका ग्रहण नहीं हो सकता है। शंका-यदि ऐसा है तो अवक्तव्य भंगका भी ग्रहण नहीं करना चाहिये, क्योंकि, अवक्तव्य भंगमें भी विभक्तिका अर्थ नहीं पाया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, विभक्तिके विना विभक्ति और अविभक्ति इन दोनोंका संयोग नहीं होता और उसके न होनेसे अवक्तव्य भंग भी नहीं बनता। इससे प्रतीत होता है कि अवक्तव्यमें विभक्तिका अर्थ पाया जाता है, और इसलिये विभक्तिमें अवक्तव्य भंगका मी प्रहण करना चाहिये । शंका-विभक्ति और अविभक्तिका संयोगरूप अवक्तव्य भंग विभक्ति कैसे हो सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, अवक्तव्यका विभक्तिसे कथंचित् भेद है, सर्वथा नहीं, इसलिये अवक्तव्यमें मी विभक्तिरूप धर्म पाया जाता है । विशेषार्थ-विभक्तिका निक्षेप नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, गणना, संस्थान और भावकी अपेक्षा आठ प्रकारसे किया है। इनमेंसे द्रव्यविभक्तिके नोकर्मभेदके और क्षेत्र, काल, गणना, संस्थान और भाव इन छहोंमेंसे प्रत्येकके विभक्ति, अविभक्ति और अवक्तव्य ये तीन तीन भंग बताये हैं। तथा यह भी बताया है कि प्रकृतमें विभक्ति और अवक्तव्य इन दोका ही ग्रहण किया है। यहां अविभक्तिका ग्रहण क्यों नहीं हो सकता, इसका यह कारण बतलाया है कि यहां विभक्तिका प्रकरण है अतः अविभक्तिको यहां कोई अवकाश नहीं। पर अवक्तव्य विभक्तिसाक्षेप होनेसे उसका ग्रहण हो जाता है । यही सबब है कि आगे सभी अनुयोगद्वारों में जहां विभक्ति पाई जाती है, और जहां विभक्तिके साथ अविभक्ति पाई जाती है उनका ग्रहण किया है। पर जहां केवल अविभक्ति ही पाई जाती है ऐसे केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि मार्गणास्थानोंका विचार नहीं किया है। चूर्णिसूत्रकारने इस अभिप्रायका उल्लेख अक्षरोंद्वारा न करके '२' के अंकद्वारा किया है । इस पर वीरसेनस्वामीका कहना है कि यदि चूर्णिसूत्रकार इस अभिप्रायको अक्षरों द्वारा प्रकट करते तो वह मूल ग्रन्थपर चूर्णिसूत्र न होकर चूर्णिसूत्रके अर्थका स्पष्टीकरणमात्र होता, और इस प्रकार अन्ध बिना नामका हो जाता । यही सबब है कि चूर्णिसूत्रकारने उक्त अभिप्राय अंक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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