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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ २८. जहा ओदइयस्स भावस्स सग-पर-संजोगेण तिण्णि भंगा परूविदा तहा उवसमिय-खओवसमिय-खइय-पारिणामियाणं भावाणं पुध पुध तिण्णि भंगा परूवेयव्वा । *२। २६. जइवसहाइरिएण एसो दोण्हमको किमट्ठमेत्थ इविदो ? सगहियडियअस्थस्स जाणावणटुं । सो अत्थो अक्सरेहि किण्ण परूविदो ? वित्तिसुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे णिण्णामो गंथो होदि त्ति भएण ण परूविदो। तं जहा, ण ताव तारिसो गंथो वित्तिसुत्तं सुत्तस्सेव विवरणाए संखित्तसद्दरयणाए संगहियसुत्तासेसत्थाए वित्तिसुत्तववएसादो। ण टीका; वित्तिसुत्तविवरणाए टीकाववएसादो। ण पंजिया; वित्तिसुत्तविसमषयमंजियाए पंजियववएसादो । ण पद्धई वि, सुत्तवित्तिविवरणाए पद्धईववएसादो। तदो णिण्णामत्तं गंथस्स मा होह(हि) दि त्ति अक्खरेहि ण कहिदो। ६३०. को सो हिययट्ठियत्थो ? उच्चदे, दव्व-खेत्त-काल-भाव-संठाणविहत्तीसु जे २८. जिसप्रकार औदयिक भावके स्व और परके संयोगसे तीन भंग कहे हैं उसीप्रकार औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और पारिणामिक भावोंके भी अलग अलग तीन तीन भंग कहना चाहिये । अर्थात् प्रत्येकके तीन तीन भंग होते हैं। २६. शंका-यतिवृषभाचार्यने यहां पर यह दोका अंक किसलिये रखा है ? समाधान-अपने हृदयमें स्थित अर्थका ज्ञान करानेके लिये उन्होंने यहां दोका अंक रखा है। शंका-वह अर्थ अक्षरोंके द्वारा क्यों नहीं कहा ? समाधान-वृत्तिसूत्रके अर्थका कथन करने पर ग्रन्थ विना नामवाला हो जाता इस भक्से यतिवृषभ आचार्यने अपने हृदयमें स्थित अर्थका अक्षरों द्वारा कथन नहीं किया । इसका खुलासा इस प्रकार है-वृत्तिसूत्रके अर्थको कहनेवाला अन्थ वृत्तिसूत्र तो हो नहीं सकता क्योंकि जो सूत्रका ही व्याख्यान करता है, किन्तु जिसकी शब्दरचना संक्षिप्त है और जिसमें सूत्रके समस्त अर्थको संग्रहीत कर लिया गया है, उसे वृत्तिसूत्र कहते हैं। उक्त ग्रन्थ टीका भी नहीं हो सकता है, क्योंकि वृत्तिसूत्रोंके विशद व्याख्यानको टीका कहते हैं । उक्त ग्रन्थ पंजिका भी नहीं हो सकता, क्योंकि वृत्तिसूत्रोंके विषम पदोंको स्पष्ट करनेवाले विवरणको पंजिका कहते हैं। तथा उक्त ग्रन्थ पद्धति मी नहीं है, क्योंकि सूत्र और वृत्ति इन दोनोंका जो विवरण है उसकी पद्धति संज्ञा है। अतः यह प्रन्थ विना नामका न हो जाय, इसलिये यतिवृषभ आचार्यने अपने हृदय में स्थित अर्थका अक्षरों द्वारा कथन न करके दोका अंक रखकर उसका सूचनमात्र कर दिया है। ३०. शंका-वह हृदय में स्थित अर्थ क्या है। समाधान-द्रव्यविभक्ति, क्षेत्रविभक्ति, कालविभक्ति, भावविभक्ति और संस्थानविभक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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