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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ अविहत्तीए मणुसभगो। असंजद० मदिअण्णाणिभंगो। ६०. दसणाणुवादेण चक्खुदंसण. विहत्तीए तसपञ्जचभंगो। अविहत्तीए आभिणि० भंगो । ओहिदंसण ओहिणाणिभंगो । संयतासंयतोंका भी कथन करना चाहिये । सूक्ष्म सांपरायिक संयतोंके मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। यथाख्यातशुद्धिसंयतोंके मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। यथाख्यात संयतोंके मोहनीय अविभक्तिके कालका कथन मनुष्योंके समान जानना चाहिये । असंयतोंके मत्यज्ञानियों के समान जानना चाहिये। विशेषार्थ-संयम परिहारविशुद्धिसंयम और संयमासंयमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल और देशोनपूर्वकोटि है इससे कम नहीं, इसलिये इनमें मोहनीयका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोनपूर्वकोटि कहा है। इतनी विशेषता है कि परिहारविशुद्धिके काल में देशोनका अर्थ अडतीस वर्ष और देशसंयमके कालमें देशोनका अर्थ अन्तर्मुहूर्त पृथक्त्व करना चाहिये । सामायिक, छेदोपस्थापना और सूक्ष्मसांपरायका जघन्य काल एक समय मरणकी अपेक्षा कहा है। उसमें पहलेके दो संयमोंका एक समय काल उपशमश्रेणीसे उतरनेवाले जीवके दसवेंसे नौवेंमें आकर और एक समय ठहरकर मरनेवाले के होगा। और सूक्ष्म सांपरायका एक समय काल उपशमश्रेणी पर आरोहण करनेवालेके दसवेंमें एक समय ठहरकर मरनेवालेके तथा उपशमश्रेणीसे उतरनेवालेके ग्यारहवेसे दसवेंमें आकर और एक समय ठहरकर मरनेवालेके होगा। सामायिक और छेदोपस्थापनाका उत्कृष्ट काल देशोनपूर्वकोटि स्पष्ट ही है । सूक्ष्म साम्पराय संयमका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त दसवें गुणस्थानके कालकी अपेक्षासे कहा है। यथाख्यातसंयमका एक समय काल ग्यारहवें गुणस्थानमें एक समय रहकर मरनेवाले जीवके होता है। उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त उपशान्तमोह गुणस्थानके कालकी अपेक्षा कहा है। इसप्रकार जहां जितना जघन्य और उत्कृष्ट काल हो वहां मोहनीयकर्मका उतना काल समझना चाहिये। जिन संयतोंने मोहनीयकर्मका नाश कर दिया है, उनके मोहका अभाव जघन्यरूपसे अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है, क्योंकि आयु कर्मके अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर जो क्षपकश्रेणीपर चढ़ते हैं वे मोहके बिना संसारमें अन्तर्मुहूर्त काल तक ही रहते हैं। तथा पूर्वकोटिकी आयुवाले जिन संयतोंने आठ वर्षकी अवस्थामें केवल ज्ञान प्राप्त किया है उनके देशोन पूर्वकोटि कालतक मोहनीयका अभाव पाया जाता है। ६६०. दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनी जीवोंके मोहनीयविभक्तिका काल त्रसपर्याप्त जीवोंके समान होता है। तथा अविभक्तिका काल आभिनिबोधिक ज्ञानीके समान है। अवधिदर्शनीके मोहनीय विभक्ति और मोहनीय अविभक्तिका काल अवधिज्ञानीके समान होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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