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________________ गा० २२] मूलपयडिविहत्तीए फोसणाणुगमो ६८२. आदेसेण णिरयगईए णेरइयेसु विहत्ति० केव० खेत्तं फोसिदं ? लोग० असं० भागो, छ चोद्दस भागा वा देसूणा। पढमाए पुढवीए खेत्तभंगो। बिदियादि जाव सत्तमित्ति विहत्ति० केव० खत्तं फोसिदं ? लोग० असं० भागो एक बे तिण्णि चत्तारि पंच प्रायः पृथक् नहीं कहा है। किन्तु अतीतमें ही गर्भित कर लिया है। इसीप्रकार जहां एक ही स्थानमें दो स्पर्शन क्षेत्र कहे गये हैं उनमेंसे पहला प्रायः वर्तमानकालकी अपेक्षा और दूसरा अतीतकालकी अपेक्षा कहा गया है । यद्यपि ओघकी अपेक्षा मोहनीय कर्मोंसे युक्त जीवोंके केवलिसमुद्धातको छोड़कर शेष सभी पद पाये जाते हैं, पर यहां मिथ्यात्व गुणस्थानकी प्रधानतासे स्पर्शन कहा गया है, क्योंकि, मोहनीय कर्मसे युक्त मिथ्यादृष्टि जीव सर्वलोकमें पाये जाते हैं, इसलिये इन जीवोंने अपनेमें संभव पदोंसे वर्तमान और अतीत दोनों कालोंकी अपेक्षा सर्वलोक स्पर्श किया है। मोहनीय कर्मसे रहित जीवोंके स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान और केवलि समुद्धात ये तीन पद पाये जाते हैं। इनमेंसे स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थानको प्राप्त हुए तथा दण्ड और कपाट समुद्धात गत मोहनीय कर्मसे रहित जीवोंने वर्तमान और अतीत दोनों कालोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। प्रतर समुद्धात गत उक्त जीवोंने दोनों कालोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा लोकपूरण समुद्धातगत उक्त जीवोंने दोनों कालोंकी अपेक्षा सर्वलोकका स्पर्श किया है। सामान्य काययोगी और भव्य जीवोंके स्पर्शनके कथनमें उक्त कथनसे कोई विशेषता नहीं है। अनाहारकोंके कथनमें थोड़ी विशेषता है। जो इसप्रकार है-मोहनीय कर्मसे युक्त अनाहारक जीव विग्रहगतिमें ही पाये जाते हैं, अतएव इनके स्वस्थान, वेदना, कषाय और उपपाद ये चार पद होते हैं। इन चारों ही पदोंसे उक्त जीवोंने दोनों कालोंकी अपेक्षा सर्वलोक स्पर्श किया है। मोहनीय कर्मसे रहित अनाहारक जीव प्रतर और लोकपूरण समुद्धात गत सयोगी और अयोगी जिन होते हैं। इनमेंसे अयोगी जिन दोनों कालोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रको स्पर्श करते हैं। प्रतर और लोकपूरणकी अपेक्षा स्पर्शन ऊपर ही कहा जा चुका है। ८२.आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और देशोन छ वटे चौदह राजुप्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है। पहली पृथिवीमें स्पर्शन क्षेत्रके समान कहना चाहिये। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक मोहनीय कर्मसे युक्त जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र और दूसरी पृथिवीकी अपेक्षा देशोन एक बटे चौदह राजु, तीसरी पृथिवीकी अपेक्षा देशोन दो बटे चौदह राजु, चौथी पृथिवीकी अपेक्षा देशोन तीन वटे चौदह राजु, पांचवीं पृथिवीकी अपेक्षा देशोन चार वटे चौदह राजु, छठी पृथिवीकी अपेक्षा देशोन पंच वटे चौदह राजु और सातवीं पृथिवीकी अपेक्षा देशोन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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