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________________ गा० २२ ] उत्तरपयडिविहत्तीए अप्पाबहुअाणुगमो एहितो अष्टणोक०- चदुसंजलणविहत्तिया विसेसाहिया त्ति वत्तव्वं । अवगदवेदे सव्वत्थोवा मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि विह० । अट्ठक०-इत्थि०-णवुसं० [विहरू विसेसा०। छण्णोकसाविह० विसे०] । पुरिस० विह० विसे । कोधसंजल विह० विसे । माणसंजल विह विसे।मायासंजल विह. विसे० । लोभसंजल विह० विसे० । तस्सेव अविह० अणंतगुणा । मायासंजल० अविह० विसे । माणसंजल. अविह. विसे । कोधसंज० अविह० विसे । पुरिस० अविह. विसे । छण्णोकसाय० अविह० विसे । अष्टक०-इथि -णस० अविह० विसे । मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०अविह० विसे । __६२०२. कसायाणे [ (णु) वादेण कोहकसाईसु सव्वत्थोवा पुरिस०] अविह० । छष्णोक० अविह० विसे० । इथिवेदअविह० विसे० । णqस० अवि० विसे० । अहक० और चार संज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं ऐसा कहना चाहिये । अपगतवेदी जीवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे आठ कषाय, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे छह नोकषायोंकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे पुरुषवेदकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे क्रोधसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे मानसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे मायासंज्वलनकी विभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे लोभसंज्वलनकी विभक्तिवाले विशेष अधिक हैं। इनसे लोभसंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं । इनसे मायासंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे मानसंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे क्रोधसंज्वलनकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे पुरुषवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे छह नोकपायोंकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे आठ कषाय, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं। ___६२०२. कषाय मार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायवाले जीवोंमें पुरुषवेदकी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे छह नोकषायोंकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे स्त्रीवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे नपुंसकवेदकी अविभक्तिवाले जीव विशेष अधिक हैं । इनसे आठ कषायोंकी अविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । शेष कथन (१) स. . . . . (त्रु० १५) पु-स० ।-स० अविह० सव्वत्थोवा सत्तणोक० विसे० पु-अ०, आ० । (२) कसायाण. (त्रु०१५) अविह०-स०। कसायाणमण्णत्थ विसेसाहिया ति लीभसंज० अविह-अ०, आ०। २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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