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________________ गा० २२ ] उत्तरपयडिविहत्तीए अंतराणुगमो १२७ दंसण-अभव्व०-सम्मादि०-खइय०-वेदग०-उवसम०-सासण-सम्मामि०-मिच्छादि० असण्णि-अणाहारएत्ति वत्तव्यं । ६१३८. देवेसु सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणुबंधिचउक्क० विहत्ति० अंतरं केव० ? जह० एगसमओ अंतोमुहत्तं, उक्क० एकत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । सेसाणं पयडीणं णत्थि अंतरं । भवणवासि० जाव उवरिमगेवजेत्ति एवं चेव वत्तव्वं । णवरि, अप्पप्पणो हिदीओ णादव्याओ । पंचिंदिय-पंचिं० पञ्ज०-तस-तसपज्ज० सम्मत्त-सम्मामि० विहत्ति० अंतरं जह० एगसमओ, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणंताणुबंधिचउक्क० परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्म सांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, अभव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, मिध्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये। विशेषार्थ-जिस मार्गणामें मिथ्यात्व और सम्यक्त्व दोनों अवस्थाएँ हो सकती हैं उसी मार्गणामें ही सम्यक्प्रकृति आदि छह प्रकृतियोंका अन्तरकाल पाया जाता है शेष मार्गणाओं में नहीं। ये ऊपर जो मार्गणाएँ गिनाई हैं ये ऐसी मार्गणाएँ हैं कि इनमें मिथ्यात्व और सम्यक्त्व दोनों अवस्थाएँ नहीं हो सकती हैं, अतः इनके उक्त छह प्रकृतियोंका अन्तरकाल घटित नहीं होता है। शेष बाईस प्रकृतियोंका अन्तरकाल कहीं भी नहीं है। ६१३८. देवोंमें सम्यक्प्रकृति, सम्यगमिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अन्तरकाल कितना है ? देवोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अन्तरकाल एक समय और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त तथा उक्त सभी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर है। शेष बाईस प्रकृतियोंका अन्तरकाल नहीं है। भवनवासियोंसे लेकर उपरिमप्रैवेयक तकके प्रत्येक स्थानके देवोंमें इसीप्रकार कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि सर्वत्र अपनी अपनी स्थिति जानना चाहिये । विशेषार्थ-देवोंमें सर्वत्र सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वका जघन्य अन्तर एक समय और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त जिस प्रकार ऊपर घटित करके लिख आये हैं उसीप्रकार यहां भी घटित कर लेना चाहिये । तथा उत्कृष्ट अन्तर नारकियोंके समान घटा लेना चाहिये । विशेषता इतनी है कि यहां अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तरका कथन करना चाहिये। यहां जो उक्त छहों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर कहा है वह नवग्रैवेयकों की अपेक्षा कहा है। क्योंकि आगेके देव नियमसे सम्यग्दृष्टि ही होते हैं। ___ पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, अस और सपर्याप्त जीवोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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