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________________ गा. २२) पयडिहाणविहत्तीए अंतराणुगमो समओं, उक्क० वासपुधत्तं । सेसाणं ५० जह० एगसमओ, उक्क ० छम्मासा । णवरि पंचवि० वासं सादिरेयं ।। ६३८२. कसायाणुवादेण कोधक० तेवीस-बावीस० जह० एगसमओ, उक्क० छमासा । तेरसादि जाव चत्तारि विहत्ति त्ति जह० एयसमओ, उक्क. वासं सादिरेयं । सेमप० णस्थि अंतरं । एवं माण०, णवरि तिविह० अस्थि । एवं माय०, णवरि पुरुषवेदमें शेष पदोंका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है। अपगतवेदियोंमें चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है। शेष पदोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । इतनी विशेषता है कि यहां पांच विभक्तिस्थानवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष है। विशेषार्थ-ऐसा नियम है कि स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी जीव यदि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी क्षपणा न करें तो वर्षपृथक्त्व काल तक नहीं करते हैं अतः स्त्रीवेद और नपुंसकवेदमें २३, १३ और १२ विभक्तिस्थानोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व कहा है। यदि पुरुषवेदी जीव दर्शनमोहनीयकी क्षपणा न करें तो छह माह तक नहीं करते हैं और यदि चारित्रमोहनीयकी क्षपणा न करें तो साधिक एक वर्ष तक नहीं करते हैं । अतः पुरुषवेदमें २३ और २२ विभक्तिस्थानोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह मास प्राप्त होता है तथा १३, १२, ११, और ५ विभक्तिस्थानोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष प्राप्त होता है। उपशमश्रेणीका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व बतलाया है। अतः अपगतवेदमें २१ और २१ विभक्तिस्थानोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्राप्त होता है। तथा क्षपकश्रेणीका उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है अतः अपगतवेदमें शेष पदोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना बन जाता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि ५ विभक्तिस्थान पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंके ही होता है और पुरुषवेदी जीव अधिकसे अधिक साधिक एक वर्ष तक तथा नपुंसकवेदी जीव वर्षपृथक्त्व काल तक क्षपकश्रेणीपर नहीं चढ़ते हैं अतः अवगतवेदमें ५ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष कहा। ६३८३.कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायमें तेईस और बाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल छह महीना है। तथा तेरहसे लेकर चार तकके विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल साधिक एक वर्ष है। शेष पदोंका अन्तर काल नहीं पाया जाता है। इसीप्रकार मानकषायमें जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि मानकषायमें तीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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