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________________ जयंधवलासहिदे कसायपाहुडे । पयडिविहत्ती २ दोण्हं वि० अत्थि । अकसा० चउवीस-एक्कवीस० अंतरं के० १ जह० एयसमओ, उक्क. वासपुधत्तं । एवं जहाक्खाद० । एवं सुहुमसांप०, णवरि एयवि० जह० एयसमओ, उक्क० छम्मासा । मदि-सुद-विहंगअण्णाण. एइंदियभंगो। एवमभवसिद्धि० मिच्छादि असणि ति । आभिणि-सुद० अट्ठावीस-चउवीस-एकवीस० णत्थि अंतरं । सेसपदाणं विभक्तिस्थान भी पाया जाता है। इसीप्रकार मायाकषायमें जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मायाकषायमें दो विभक्तिस्थान भी पाया जाता है। कषायरहित जीवोंमें चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है। इसीप्रकार य ख्यात संयत और सूक्ष्मसांपरायिक संयतोंमें कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि सूक्ष्मसांपरायिक संयतोंमें एक विभक्तिस्थानका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल छह महीना है। विशेषार्थ-क्रोधकषायी, मानकषायी और मायाकषायी जीव यदि दर्शनमोहनीयकी क्षपणा न करें तो अधिक से अधिक छ महीना काल तक नहीं करते हैं इसके पश्चात् अवश्य करते हैं और इसीलिये इन कषायोंमें २३ और २२ विभक्तिस्थानोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना कहा है। तथा उक्त कषायवाले जीव यदि क्षपक श्रेणीपर नहीं चढ़ते हैं तो अधिकसे अधिक साधिक एक वर्ष तक नहीं चढ़ते हैं और इसीलिये क्रोधकषायमें १३, १२,११, ५ और ४ विभक्तिस्थानोंका, मानकषायमें १३, १२, ११, ५, ४ और ३ विभक्तिस्थानोंका तथा माया कषायमें १३, १२, ११, ५, ४, ३ और २ विभक्तिस्थानोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष कहा है। इन कषायोंमें शेष विभक्तिस्थानोंका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है। उपशमश्रेणीका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्ष पृथक्त्व कहा है और इसीलिये अकषायी जीवोंके २४ और २१ विभक्तिस्थानोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व प्रमाण होता है। तथा अकषायी जीवोंके समान यथाख्यातपंयत और सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंके जानना। किन्तु इतनी विशेषता है कि सूक्ष्मसाम्परायसंयतके एक विभक्तिस्थान भी होता है तथा क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान अधिकसे अधिक छह महीनाके पश्चात् नियमसे होता है, अतः सूक्ष्मसाम्पराय संयतोंके एक विभक्तिस्थानका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना कहा है। ___ मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी और विभंगज्ञानी जीवोंमें एकेन्द्रियोंके समान जानना चाहिये। तथा इसीप्रकार अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके कथन करना चाहिये । विशेषार्थ-ऊपर जितने मार्गणास्थान गिनाये हैं उनमें, जहां जितने विभक्तिस्थान सम्भव हैं उनका अन्तरकाल नहीं पाया जाता यह उक्त कथनका तात्पर्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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