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________________ गा० २२ ] पयडिट्ठाणविहत्तीए अंतराणुगमो ओघभंगो । एवं संजद-सामाइय-छेदो०-संजदासंजद-सम्मादि०-वेदय० वत्तव्वं । णवरि वेदय० एकवीस० णत्थि । ओहि-मणपज० एवं चेव, णवरि वासपुधत्तं । एवं परिहार० ओहिदंसण० वत्तव्बं । असंजद०-तेउ०-पम्म० सुक्क० अप्पणो पदाणं ओघभंगो । खइय० एकवीस० णत्थि अंतरं । सेसप० ओघभंगो। उवसम० अहावीस० जह० एगसमओ, उक्क० चउवीसमहोरत्ती० । एवं चउवीसविह० । सासण० अटावीस० के० ? जह० एयसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। सम्मामिच्छाइही० अट्ठावीस-चउवीस० जह० एयसमओ, उक० पलिदो० असंखे० भागो। अणाहार० ___ मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी जीवोंमें अट्ठाईस, चौबीस और इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है। तथा शेष पदोंका अन्तरकाल ओघके समान है । इसीप्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, संयतासंयत, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टियोंके कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि वेदकसम्यक्त्वमें इक्कीस विभक्तिस्थान नहीं पाया जाता है । अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें भी इसीप्रकार कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व कहना चाहिये । इसीप्रकार परिहार विशुद्धिसंयत और अवधिदर्शनमें कथन करना चाहिये । विशेषार्थ-वेदकसम्यक्त्वमें १३ आदि विभक्तिस्थान तो होते ही नहीं। साथ ही २१ विभक्तिस्थान भी नहीं होता । अत: मातज्ञानी और श्रुतज्ञानी जीवोंके २३ और २२ तथा १३ आदि स्थानोंका अन्तरकाल जहां ओघके समान होगा वहां वेदकसम्यक्त्वमें २३ और २२ विभक्तिस्थानोंका अन्तरकाल भी ओघके समान होगा। तथा अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीव अधिकसे अधिक वर्षपृथक्त्व काल तक न तो दर्शनमोहनीयकी और न चारित्रमोहनी यकी क्षपणा करते हैं अतः इनके २३, २२ और १३ आदि विभक्तिस्थानोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षष्टथक्त्व कहा है । तथा अवधिज्ञानी जीवोंके समान परिहारविशुद्धिसंयत और अवधिदर्शनी जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु परिहारविशुद्धिसंयतमें १३ आदि विभक्तिस्थान नहीं होते । असंयतोंमें तथा पीत, पद्म और शुक्ललेश्यामें अपने अपने पदोंका अन्तरकाल ओघके समान कहना चाहिये । क्षायिकसम्यक्त्वमें इक्कीस विभक्तिस्थानका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है। शेष पदोंका अन्तरकाल ओघके समान है। उपशमसम्यक्त्वमें अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल चौवीस दिनगत है । इसी प्रकार उपशमसम्यग्दृष्टियोंके चौबीस विभक्तिस्थानका अन्तरकाल जानना चाहिये। सासादनमें अट्ठाईस विभक्तिस्थानका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। सम्यग्मिथ्यादृष्टियों में अट्ठाईस और चौबीस विभक्तिस्थानवालोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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