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________________ गी० ३३ पयडिहाणविहत्तौए कालो योगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है अतः इन योगोंमें सम्भव अपने अपने विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है। तथा अन्य प्रकारसेभी इन योगों में अपने अपने विभक्तिस्थानोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त बन सकता है सो विचार कर कथन कर लेना चाहिये । काययोगमें २८,२७, और २६ विभक्तिस्थानोंका जघन्यकाल एक समय जिसप्रकार नारकियोंके घटित करके लिख आये हैं उसीप्रकार घटित कर लेना चाहिये । सर्वदा काययोग एकेन्द्रियोंके ही रहता है और एकेन्द्रियोंके एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है अतः काययोगमें २८ और २७ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है, क्योंकि सम्यक्त्व और सभ्यमिथ्यात्वकी उद्वेलनामें इतना ही काल लगता है । काययोगका उत्कृष्टकाल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण होता है अत: इसमें २६ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल इतना ही प्राप्त होता है। क्योंकि इतने काल तक निरन्तर २६ विभक्तिस्थानके होने में कोई बाधा नहीं है। काययोगमें शेष विभक्तिस्थानोंका काल मनोयोगियोंके समान कहनेका कारण यह है कि शेष विभक्तिस्थान संज्ञीके ही होते हैं और वहां तीनों योग बदलते रहते हैं अतः काययोगमें भी शेष विभक्तिस्थानोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है। औदारिक काययोगमें २८, २७, और २६ विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल एक समय पूर्ववत् घटित कर लेना चाहिये । या इसका जघन्यकाल एक समय है इसलिये भी इसमें उक्त विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल एक समय बन जाता है। तथा औदारिककाययोगका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्ष है अत: इसमें २८, २७ और २६ विभक्तिस्थानोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम २२ हजार वर्ष प्रमाण बन जाता है। तथा औदारिक काययोगमें भी शेष विभक्तिस्थानोंका काल मनोयोगियोंके समान घटित कर लेना चाहिये । औदारिक मिश्रकाययोगमें २८, २७, २६ और २२ विभक्तिस्थानोंका जघन्य काल एक समय नारकियोंके समान घटित कर लेना चाहिये । तथा औदारिक मिश्रकाययोगका काल अन्तर्मुहूर्त होनेसे इसमें उक्त विभक्तिस्थानोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है। तथा औदारिकमिश्रकाययोगमें २४ और २१ विभक्तिस्थानक' जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होता है, क्योंकि जो २४ और २१ विभक्तिस्थानवाला जीव औदारिकमिश्र काययोगको प्राप्त हुआ है उसके औदारिक मिश्रकाययोगके कालमें २१ और २१ विभक्तिस्थान ही बना रहता है। यद्यपि जो २२ विभक्तिस्थानवाला जीव औदारिकमिश्रकाययोगको प्राप्त होता है। उसके औदारिकमिश्रकाययोगके रहते हुए ही २२ विभक्तिस्थान बदल कर २१ विभक्तिस्थान आजाता है किन्तु इसप्रकार २१ विभक्तिस्थानके प्राप्त होनेपर भी अन्तर्मुहूर्त काल तक औदारिक मिश्रकाययोग फिर भी बना रहता है अतः औदारिक मिश्रकाययोगमें २१ विभक्तिस्थानका काल अन्तर्मुहूर्तसे कम नहीं कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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