SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२] मूलपयडिविहत्तीए कालो मुहुत्तं, उक्क० सगढ़िदी । णवंस० विहत्ती केव० १ जह० एगसमओ उक्क० अणंतकाले । अवगदवेद० विहत्ती केव० ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अविहत्ती० ओघभंगो । ५८. कसायाणुवादेण कोहादिचउक्कविहत्ती केव० ? जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तं । कितना काल है ? स्त्रीवेदीके जघन्य काल एक समय और पुरुषवेदीके जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा दोनोंके उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थिति प्रमाण है । नपुंसकवेदियोंके मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। अपगतवेदियोंके मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अपगतवेदियोंके मोहनीय अविभक्तिके कालका कथन ओघके समान है। विशेषार्थ-जो पहले स्त्री वेदी या नपुंसकवेदी था वह उपशम श्रेणीसे उतरते समय सवेदी हुआ और दूसरे समयमें मरकर पुरुष वेदके साथ देव हुआ, उसके उक्त दोनों वेदोंकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिका काल एक समय पाया जाता है। जो पहले सवेदी था वह उपशमश्रेणी पर चढ़कर एक समय के लिये अपगतवेदी हुआ और दूसरे समय में मरकर पुरुषवेदी हो गया उसके मोहनीय विभक्तिका काल एक समय पाया जाता है। पुरुषवेदकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्तसे कम नहीं हो सकता। वह इस प्रकार है-जो पहले पुरुषवेदी था वह उपशमश्रेणीसे उतरते समय पुरुषवेदी होकर सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक विश्राम करके जब पुनः उपशम श्रेणी पर आरोहण करके अवेदभावको प्राप्त होता है तब उसके पुरुषवेदके साथ मोहनीय विभक्तिका जघन्य काल अन्तर्भुहूर्त पाया जाता है। उत्कृष्टरूपसे स्त्रीवेद और पुरुषवेदके साथ मोहनीय कर्मका काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण बतलाया है। यहां अपनी अपनी स्थितिसे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदीकी केवल एक पर्याय प्रमाण स्थितिका ग्रहण नहीं करना चाहिये किन्तु जितनी पर्यायों में स्त्रीवेदऔर पुरुषवेदकी अविच्छिन्न धारा चलती है तत्प्रमाण स्थिति लेना चाहिये । स्त्रीवेदका उत्कृष्ट काल पल्योपम शतपृथक्त्व है और पुरुषवेदका उत्कृष्ट काल सागरोपम शतपृथक्त्व है। अतः इन दोनों वेदोंके साथ मोहनीय विभक्तिका उत्कृष्ट काल भी इतना ही समझना चाहिये । एकेन्द्रिय जीवोंकी प्रधानतासे नपुंसकवेदका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण कहा है, अतः नपुंसकवेदके साथ मोहनीय कर्मका काल भी तत्प्रमाण सिद्ध होता है । अपगतवेदियोंके मोहनीय विभक्ति अन्तर्मुहूर्तसे अधिक कालतक नहीं पायी जाती है यह स्पष्ट ही है। ६५८. कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधादि चारों कषायवालोंके मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकारसे अन्तर्मुहूर्त काल है। कषाय रहित जीवोंके अपगत वेदियों के समान कथन करना चाहिये । (१)-लमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy