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________________ ७८ जयघवलासहिदे कसायपाहुई [पयडिविहत्ती २ को भावो ? ओदइओ उवसामओ खइओ खओवसमिओ वा। अविहत्ति० को भावो ? खइओ भावो । एवं जाव अणाहारए ति ।। ६६६. अप्पाबहुगाणुगमेण दुविहो णिहेसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वत्थोवा अविहत्तिया, विहत्तिया अणंतगुणा । एवं कायजोगि-ओरालिय०-ओरालियमिस्स-कम्मइय०-अचक्खु०-भवसि०-आहारि०-अणाहारए त्ति वत्तव्वं । मणुसगईए मणुस्सेसु सव्वत्थोवा अविह० विहत्ति० असंखेज्जगुणा। एवं पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्त तस-तसपज्जत्त-पंचमण-पंचवचि० आभिणि-सुद०-ओहिणाण-चक्खुदंसण-ओहिदं० उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीयविभक्तिवाले जीवोंके कौनसा भाव है ? औदायिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव है। मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंके कौनसा भाव है ? क्षायिक भाव है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक कथन करना चाहिये। विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रके तीन तीन भेद हैं-औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक । तथा मिथ्यात्व मिथ्यात्व कर्मके उदयसे होता है । अतः इनमेंसे जहां जो भेद संभव हो उसकी अपेक्षा वहां वह भाव समझ लेना चाहिये । अन्यत्र सासादनसम्यग्दृष्टिके पारिणामिक और सम्यग्मिध्यादृष्टिके क्षायोपशमिक भाव बताया है पर यहां उस विवक्षाभेदकी अपेक्षा नहीं की है ऐसा प्रतीत होता है। अतः सासादनमें अनन्तानुबन्धी आदिके उदयकी अपेक्षा और सम्यग्मिथ्यादृष्टिमें मिश्र आदि प्रकृतिके उदयकी अपेक्षा औदयिक भाव जानना चाहिये । इसी प्रकार जिस मार्गणास्थानमें उपयुक्त भावोंमेंसे जो भाव संभव हो उसका कथन कर लेना चाहिये। इसप्रकार भावानुगम समाप्त हुआ। ६६६.अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीय अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। मोहनीय विभक्तिवाले जीव इनसे अनन्तगुणे हैं। इसी प्रकार काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, आहारक और अनाहारक जीवोंके कथन करना चाहिये। विशेषार्थ-यद्यपि मोहनीयकी अविभक्तिवाले अनाहारक जीवोंमें अयोगकेवली और सिद्धोंका भी ग्रहण हो जाता है तो भी मोहनीय विभक्तिवाले अनाहारक जीव इनसे अनन्तगुणे हैं। शेष कथन सुगम है। मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें मोहनीय अविभक्तिवाले जीव सवसे थोड़े हैं। मोहनीय विभक्तिवाले जीव इनसे असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके कथन करना चाहिये । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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