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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पपडिविहत्ती २ ३३४४. एवं विहाणेणुप्पाइदपत्थारसलागाओ अस्सिदण तेसिं पत्याराणमुच्चारणसलागाणयणहमेसा अजा ___ 'सूत्रानीतविकल्पेण्वेकविकल्पान् द्विकेन संगुणयेत् । द्वयादिविकल्पान् भाज्यान् द्विगुणद्विगुणेन तेनैव ॥६॥' ६३४५. एदिस्से अत्थो वुच्चदे । तद्यथा-'रूपोत्तरपदवृद्ध' इति सूत्रम् । एतेन सूत्रेण आनीतविकल्पाः १०, ४५, १२०, २१०, २५२, २१०, १२०,४५,१०, १, एतेषु विकल्पेषु 'एकविकल्पान्' एकसयोगविकल्पान् 'द्विकेन' द्वाभ्यां रूपाभ्यां 'गुणयेत्' ताडयेत् । कुतः ? एकसंयोगे एकबहुवचनभेदेन द्वयोरेव भंगयोस्समुत्पत्तेः । 'यादिविकल्पान्' द्विसंयोगादिप्रस्तारविकल्पान् 'भाज्यान्' भाज्यस्थानसम्बंधिनः 'तेनेव' ताभ्यां द्वाभ्यामेव रूपाभ्यां गुणयेत् । कीदृक्षाभ्यां 'द्विगुणद्विगुणेन' द्विगुणद्विगुणाभ्यां । एवं गणयित्वा एकत्र कृते सति सर्वोच्चारणसङ्ख्योत्पद्यते । २, ४, ८, १६, ३२, ६४, १२८, २५६, ५१२, १०२४, एते गुणकाराः। कुता, द्विगुणद्विगुणक्रमेणोच्चारणशलाकोत्पत्तेः। एतैगुण्यमानराशिषु गुणितेषु समुत्पन्नाचा ३४४.इसप्रकार विधिपूर्वक उत्पन्नकी हुई प्रस्तार शलाकाओंका आश्रय लेकर उन प्रस्तारोंके आलापोंकी शलाकाओंके लानेके लिये यह निम्नलिखित आर्या है "रूपोत्तरपदवृद्धः' इत्यादि सूत्रके अनुसार लाये गये प्रस्तार विकल्पोंमें एकसयोगी प्रस्तार विकल्पोंको दोसे गुणित करे । तथा द्विसंयोगी आदि भजनीय प्रस्तार विकल्पोंको उत्तरोत्तर दुगुने दुगुने उसी दोसे गुणा करे । ऐसा करनेसे आलापोंके सब भंग आ जाते हैं ॥६॥ ३४५. अब इस आर्याका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है- पूर्वोक्त आर्या में आये हुए 'सूत्र' पदसे 'रूपोत्तरपदवृद्धः' इत्यादि सूत्र लिया गया है। इस सूत्रसे लाये हुए एक संयोगी आदि प्रस्तारों की शलाकाएँ क्रमसे १०,४५,१२०,२१०,२५२, २१०,१२०, १५, १० और १ होती हैं। इन प्रस्तार शलाकाओंमेंसे एकसंयोगी शलाकाओंको दोसे गुणित करे, क्योंकि एकसंयोगीके एक वचन और बहुवचनके भेदसे दो ही भंग होते हैं। तथा भाज्य अर्थात भजनीय स्थानसम्बन्धी द्विसंयोगी आदि प्रस्तार शलाकाओंको उसी दोसे गुणित करे । पर द्विसंयोगी आदि प्रस्तार शलाकाओंको दोसे गुणा करते समय वह दो उत्तरोचर दूना दूना होना चाहिये । इसप्रकार गिनती करके एकत्र करनेपर सभी आलापोंकी संख्या उत्पन्न होती है। दोको इसप्रकार दूना दूना करनेपर एकसंयोगी आदि मस्तार शलाकाओंके क्रमसे २, ४, ८, १६, ३२, ६४,१२८, २५६, ५१२ और १०२१ थे गुणकार होते हैं, क्योंकि आलाप शलाकाएँ उत्तरोत्तर दूने दूनेके क्रमसे उत्पन्न होती हैं। इन गुणकारोंके द्वारा गुण्यमामराशि १०, १५, १२०, २१०, २५२, २१०, १२०, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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