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________________ गा० २२) पयडिट्ठाणविहत्तीए भंगविचओ ३११ रणभंगाः पृथक् पृथगेते भवन्ति-२०, १८०, ६६०, ३३६०, ८०६४, १३४४०, १५३६०, ११५२०, ५१२०, १०२४ । एतेषां सर्वेषां भंगानां मानः इयान् भवति ५६०४८ । ध्रुवे प्रक्षिप्ते सति इयती सङ्ख्या ५६०४६ । एवं मणुस्सतियस्स । णवरि, मणुस्सिणीसु भयाणजपदाणि णव होंति पंचण्हमभावादो।। ६३४६. पंचिंदिय-पंचिं० पज-तस-तसपज०-पंचमण-पंचवचि-कायजोगि०४५, १० और १ को क्रमसे गुणित करनेपर सभी आलाप भंग अलग अलग २०, १८०, २६०, ३३६०, ८०६४, १३४४०,१५३६०,११५२०, ५१२० और १०२४ उत्पन्न होते हैं। इन सब भंगोंका प्रमाण ५१०४८ होता है। इसराशिमें एक ध्रुव भंगके मिला देने पर कुल जोड़ ५६०४६ होता है। ___ इसीप्रकार सामान्य, तथा पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यणियोंके समझना चाहिये । अर्थात् इनके ऊपर कहे गये विभक्तिस्थान सम्बन्धी सभी भंग होते हैं । इतनी विशेषता है कि मनुष्यिणियोंमें भजनीय पद नौ होते हैं। क्योंकि उनके पांच विभक्तिस्थान नहीं पाया जाता। विशेषार्थ-ऊपर भजनीय पद दस कह आये हैं। वे दसों पद सामान्य मनुष्य और पर्याप्त मनुष्यके पाये जाते हैं । अतः इन दसों भजनीय पदोंके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा होनेवाले समग्र ५६०४८ भंग सामान्य और पर्याप्त मनुष्योंके सम्भव हैं। तथा अट्ठाईस आदि विभक्तिस्थान सम्बन्धी एक ध्रुवपद भी इन दोनों प्रकारके मनुष्योंके निरन्तर पाया जाता है, अतः ओघ प्ररूपणामें कुल भंग जो ५६०४६ कहे हैं वे सभी सामान्य और पर्याप्त मनुष्योंके सम्भव हैं, इसलिये इनकी प्ररूपणा ओघ प्ररूपणाके समान है। परन्तु मनुष्यिणियोंके दस भजनीय पदोंमें पांच विभक्तिस्थान नहीं पाया जाता है, अतः उनके २३, २२, १३, १२, ११, ४, ३, २ और १ ये नौ भजनीय पद जानना चाहिये । जिनके एकसंयोगीसे लेकर नौसंयोगी तक प्रस्तारविकल्प क्रमशः १, ३६, ८४, १२६, १२६, ८४, ३६, र और १ होंगे। तथा आलाप भंग २, ४, ८, १६, ३२, ६४, १२८, २५६ और ५१२ होंगे। इन { आदि प्रस्तार विकल्पोंको २ आदि आलाप भंगोंसे क्रमशः गुणित कर देनेपर एक संयोगी आदि भंगोंका प्रमाण १८, १४४, ६७ , २०१६, ४०३२, ५३७६, ४६०८, २३०४ और ५१२ होगा । जिनका कुल जोड़ १९६८२ होता है। ये अध्रुव भंग हैं। इनमें ध्रुव भंगके मिला देने पर मनुष्यनियोंमें कुल भंगोंका प्रमाण १९६८३ होगा। तेईस विभक्तिस्थानके एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा दो भंग और एक ध्रुव भंग इसप्रकार इन तीन भंगोंको उत्तरोत्तर आठ बार तिगुना तिगुना करनेसे भी सब भंगोंका प्रमाण १९६८३ आ जाता है। ६३४६.पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, (१) -षां... ( त्रु० ४) मा-स० । -षां गुण्यमा-अ०, आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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