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________________ ४४२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिषिहत्ती २ ६ ४८६. कालाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण संखेजमागवड्ढी संखेजगुणहाणीओ केवचिरं कालादो होति ? जहण्णुकस्सेण एगसमओ। संखेजभागहाणी. जह० एगसमओ उक्क० वेसमया! अवहाणं तिविहो अणादि-अपञ्जवसिदो अणादिसपञ्जवसिदो सादिसपजवसिदो चेदि । सत्थ जो सो सादिसपञ्जवसिदो तस्स जह० एगसमओ, उक अद्धपोग्गलपरियहं देरणं । एवमचक्खु० भवसि० । णवरि भवसि० अणादि-अपजवसिदं णत्थि । ६४८१. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणहानिका कितना काल है। इन दोनोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है । अवस्थान तीन प्रकारका हैअनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । उनमेंसे जो सादि-सान्त अवस्थान है उसका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। इसीप्रकार अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंके कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि भव्यजीवोंके अनादि-अनन्त अवस्थान नहीं होता है। विशेषार्थ-यहां एक जीवकी अपेक्षा संख्यात भाग वृद्धि आदिका काल बतलाया है। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणहानिके होनेके पश्चात् दूसरे समयमें पुनः संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणहानि नहीं होती। अतः इन दोनोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। जो जीव नपुंसक वेदके उदयके साथ क्षपक श्रेणीपर चढ़ा है वह पहले समयमें स्त्रीवेदका और दूसरे समयमें नपुंसकवेदका क्षय करके क्रमशः १२ और ११ प्रकृतिक स्थानवाला होता है । अत: संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल दो समय बन जाता है। इसका जघन्य काल एक समय पूर्ववत् जानना। तथा जो जीव सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके एक समय तक मिथ्यात्वमें रहा और दूसरे समयमें प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि हो गया उसके अवस्थानका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। तथा जिस जीवने अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कालके पहले समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त किया और अतिलघु अन्तर्मुहूर्त काल तक सम्यक्त्वके साथ रह कर जो जीव मिथ्यात्वमें चला गया । पुनः वहां पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्ता वाला हो गया। और जब अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण कालमें अन्तर्मुहूर्त शेष रह गया, तब पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त करके अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता वाला हो गया उसके आदि और अन्तके दो अन्तर्मुहूर्त और पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण कालसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण काल तक छब्बीस विभक्तिस्थानका अवस्थान देखा जाता है। अतः अवस्थानका उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुगल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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