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________________ गा० २२] पड्ढिविहत्तीए अप्पाबहुगाणुगमो ४८१ ६५३८. पंचिंदिय-पचिपज-तस-तसपज-ओघभंगो । णवरि अवष्टि० असंखे० गुणा । एवं पंचमण०-पंचवचि०-पुरिस०-चक्खु०-सुक्क० सण्णि. वत्तव्वं आहार०आहारमिस्स० अवहि० णत्थि अप्पाबहुअं। एवमकसा०-सुहुम-सांपराय०-जहाक्खादअभवसिद्धि०-उवसम०-सासण-सम्मामि० दिहीणं वत्तव्यं । ___५३६. अवगद० सव्वत्थोवा संखेजगुणहाणी० । संखेजभागहाणी संखेजगुणा। अवहि. संखेजगुणा। एवं मणपज्जव०-संजद०-सामाइयछेदो० वत्तव्वं । आभिणि०सुद०-ओहि सव्वत्थोवा संखेजगुणहाणी। संखेजभागहाणी असंखेजगुणा । अवट्टि असंखेगुणा । एवमोहिदंसण० सम्मादि०त्ति वत्तव्वं । परिहार० सव्वट्ठभंगो। खइय० सव्वत्थोवा संखेजगुणहाणी । संखेजभागहाणी संखेजगुणा । अवहि० असंखेजगुणा। ५३८. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस और त्रसपर्याप्त जीवों में संख्यातभागवृद्धि आदि पदोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि यहां पर संख्यातभागवृद्धिवाले जीवोंसे अवस्थित पदवाले जीव अनन्त गुणे न होकर असंख्यातगुणे होते हैं। इसीप्रकार पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके उक्त पदोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहना चाहिये। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें एक अवस्थित पद ही है, इसलिए अल्पबहुत्व नहीं है। इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, अभव्य, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके एक अवस्थित पद होनेके कारण अल्पबहुत्व नहीं है यह कहना चाहिये। ६५३६. अपगतवेदियोंमें संख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थितपदवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके सक्त पदोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहना चाहिये । मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें संख्यातगुणहानिवाले जीब सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थितपदवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंके उक्त सीन पदोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहना चाहिये। __परिहारविशुद्धिसंयतोंके सम्भव पदोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व सर्वार्थसिद्धिके देवोंके कहे गये अल्पबहुत्वके समान होता है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें संख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित पदवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके संभवपदोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्व For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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