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________________ ४७६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । पयडिविहत्ती २ ___५३०. आदेसेण णेरईएसु संग्वेजभागवड्ढी-संखे०भागहाणी० अंतरं के० ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । भुजगारम्मि चउवीस अहोरत्तमेत्तरं भुजगारअप्पदराणं परूविदं । एत्थ पुण अंतोमुहुत्तमेत्त, कधमेदं घडदे ? ण एस दोसो, अंतरस्स दुवे उवएसा-चउवीस अहोरत्तमेत्तमिदि एगो उवएसो, अवरो अंतोमुहुत्तमिदि । तत्थ चउवीसअहोरत्तंतर-उवएसेण भुजगारपरूवणं काऊण संपहि अंतोमुहुर्ततर-उवएसजाणावणटं वड्ढीए अंतोमुहुत्तंतरमिदि भणिदं । तेण एदं घडदे। एवं सव्वाणरय-तिरिक्खपंचिं-तिरितिय-देव-भवणादि-जाव उवरिमगेवज०-वेउविय-इत्थि०-णqस०-असंजद. पर नहीं चढ़ते हैं अतः पुरुषवेदमें संख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष प्रमाण कहा है। ५३०. आदेशसे नारकियोंमें संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। शंका-भुजगार अनुयोगद्वारमें भुजगार और अल्पतरका अन्तरकाल चौबीस दिनरात कहा है पर यहां इन दोनोंका अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तमात्र कहा है, इसलिये यह कैसे बन सकता है ? ___ समाधान-यह दोष ठीक नहीं है, क्योंकि अन्तरकालके विषयमें दो उपदेश पाये जाते हैं । भुजगार और अल्पतरका उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस दिनरात है यह एक उपदेश है और अन्तर्मुहूर्त है यह दूसरा उपदेश है। उनमेंसे चौबीस दिनरात प्रमाण अन्तरकालके उपदेश द्वारा भुजगार अनुयोगद्वारका कथन करके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अन्तरकाल रूप उपदेशका ज्ञान करानेके लिये इस वृद्धि नामक अनुयोगद्वार में संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका अन्सरकाल अन्तर्मुहूर्त है, यह कहा है। इसलिये यह घटित हो जाता है । जिसप्रकार सामान्य नारकियोंके संख्यातभागवृद्धि आदि पदोंका अन्तरकाल कहा इसीप्रकार सभी नारकी, तिर्यच सामान्य, पंचेन्द्रिय तियंच, पंचेन्द्रिय पर्याप्त नियंच, योनिमती तियंच, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देव, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, नपुंसकवेदी, असंयत और कृष्णादि पांच लेश्यावाले जीवोंके संख्यातभागवृद्धि प्रादि पदोंका अन्तरकाल कहना चाहिये। विशेषार्थ-सामान्य मनुष्योंके संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरके कहनेके पश्चात् भुजगारविभक्ति अनुयोगद्वार में कहे गये भुजगार और अल्पतरविभक्तिके उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनके साथ यहां संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बतलाये गये उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्तका विरोध बतला कर उसका समाधान किया गया है सो यह कथन ओघमें भी घटित कर लेना चाहिये। शेष कथन सुगम है, क्योंकि सामान्य नारकियोंसे लेकर पांच लेश्यावाले जीवों तक उक्त मार्गणाओंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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