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________________ गा० २२] पयडिहाणविहत्तीए अप्पाबहुप्राणुगमो ३७३ भादो, असंखेजदीवेसु भोगभूमिपडिभागेसु कम्मभूमिपडिभागदीवसमुद्देसु च णिवसंतचउवीससंतकम्यियसम्माइट्ठीणं सोहम्मीसाणेसु असंखजाणमुवक्कमणसमयं पडि उप्पजमाणाणमुवलंभादो च । जदि एवं तो पलिदोवमस्स असंखेजदिमागेण गुणगारेण होदव्वं ? ण, सव्वोवक्कमणसमएसु पलिदो० असंखे० भागमेत्ताणं जीवाणं चउवीससंतकम्मियभावमुवक्कममाणाणमणुवलंभादो। जदि एवं तो कधमुवकमंति ? कत्थ वि एक्को, कत्थ वि दोण्णि, एवं गंतूण कथवि० संखेजा, कत्थ वि आवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्ता, कत्थ वि आवलियमेत्ता, संखेज्जावलियमेत्ता असंखेज्जावलियभेत्ता वा उवक्कमंति चउवीससंतकम्मियभावं, तेण आवलियाए असंखे० भागेणेव गुणगारेण होदव्वं । चउवीससंतकम्मियभागहारेण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण संखेज्जावलियमेत्ते एकवीसविहत्तियभागहारे ओवट्टिदे आवलियाए असंखेज्जदिभागुवलंभादो वा गुणगारो आवलियाए असंखे० भागो। संखेज्जावलियमेत्ते सोहके असंख्यातवें भाग पाये जाते है, तथा भोगभूमिसम्बन्धी असंख्यात द्वीपोंमें और कर्मभूमिसम्बन्धी द्वीप समुद्रोंमें निवास करने वाले चौबीस विभक्तिस्थानवाले सम्यग्दृष्टि जीव सौधर्म और ऐशान कल्पमें प्रत्येक उपक्रमणकालमें असंख्यात उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं। इन हेतुओंसे प्रतीत होता है इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीव असंख्यात गुणे होते हैं। शंका-यदि ऐसा है तो प्रकृतमें गुणकारका प्रमाण आवलीका असंख्यातवां भाग न होकर पल्योपमका असंख्यातवां भाग होना चाहिये ? समाधान-नहीं, क्योंकि सभी उपक्रमण कालोंमें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव चौबीस विभक्तिस्थानको प्राप्त होते हुए नहीं पाये जाते हैं, अतः प्रकृतमें गुणकारका प्रमाण पल्योपमका असंख्यातवां भाग नहीं कहा। शंका-यदि ऐसा है तो सम्यग्दृष्टि जीव किस क्रमसे चौबीस विभक्तिस्थानको प्राप्त होते है ? समाधान-किसी उपक्रमणकालमें एक जीव, किसीमें दो, इसप्रकार उत्तरोत्तर किसीमें संख्यात, किसीमें आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण, किसी में आवली प्रमाण, किसीमें संख्यात आवली प्रमाण, किसी में असंख्यात आवलीप्रमाण जीव चौबीस विभक्तिस्थानको प्राप्त होते हैं, इससे यह निश्चित होता है कि गुणकार आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होना चाहिये। अथवा आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण चौबीस विभक्तिस्थान संबन्धी भागहारसे संख्यात आवली प्रमाण इक्कीस विभक्तिस्थान संबन्धी भागहारको भाजित कर देनेपर आवलीका असंख्यातवां भागमात्र प्राप्त होता है, इससे भी यही निश्चित होता है कि प्रकृतमें गुणकारका प्रमाण आवलीका असंख्यातवां भाग ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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