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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ लोग० असंखे० भागो, अह-चोदस० देखूणा। एवमाणद-पाणद-आरणच्चुद० । णवरि छ-चोदस० देसूणा । उवरि खेत्तभंगो। एवं वेउव्वियमिस्स -[आहार]आहारमिस्स०-अवगद०-अकसाय०-मणपज्जव०-संजद-सामाइय-छेदो०-परिहार०सुहुम०जहाक्खाद-अभव्वसिद्धि० वत्तव्वं । ६३६६. इंदियाणुवादेण एइंदिय० अट्ठावीस-सत्तावीस० के० खेत्तं फोसिदं ? लोग० असंखे० भागो, सव्वलोगो वा। छव्वीसवि० के० खेतं फोसिदं ? सव्वलोगो । एवं बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज ० -बादरेइंदियअपज ०-सुहुमेइंदिय-सुहुमेइंदियपज ०सुहुमेइंदियअपज्ज -पुढवि ०-बादरपुढवि ०-बादरपुढ० अपज ०-सुहुमपुढवि -सुहुमपुढ वि० पज०-सुहुमपुढ० अपज०-आउ ०-बादरआउ ०-बादरआउ ०अपजत्त-सुहुमआउ०सुहुमआउ० पजत्तापज्जत-तेउ०-बादरतेउ० बादरतेउ• अपजत्त-सुहुमतेउ०-सुहुमतेउ० पजत्तापज्जत्त-वाउ ०-बादरवाउ ०-बादरवाउअपज ०-सुहुमवाउ ०-सुहुमवाउ० पज्जत्ताक्षेत्रका स्पर्श किया है । सानत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तक बाईस विभक्तिस्थानवाले देवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा शेष पदोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग तथा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग है । इसीप्रकार आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पमें जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि यहां कुछ कम आठ बटे चौदह भागके स्थानमें कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पर्श कहना चाहिये । सोलह कल्पोंके ऊपर नौ अवेयक आदिमें स्पर्श क्षेत्रके समान है। अपने अपने क्षेत्रके समान ही वैक्रियिकमिश्र- . काययोगी, आहारक काययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायसंयत, यथाख्यातसंयत और अभव्य जीवोंके कहना चाहिये । ६३६६.इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें अट्ठाईस और सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग तथा सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सर्वलोकका स्पर्श किया है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अनिकापिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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