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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ ६१. संपहि एदिस्से गाहाए अत्थो वुच्चदे। तं जहा, मोहणिजपयडीए विहत्तिपरूवणा मोहणिजहिदीए विहत्तिपरूवणा मोहणिजअणुभागे विहत्तिपरूवणा च कायव्वा त्ति एसो गाहाए पंढमद्धस्स अत्थो। एदेहि तिहि वि अत्थेहि एक्को चेव अत्थाहियारो। 'उक्कस्समणुक्कस्सं' चेदि उत्ते पदेसविसयउक्कम्साणुक्कम्साणं गहणं कायव्वं; अण्णेसिमसंभवादो। पयडि-हिदि-अणुभाग-पदेसाणमुक्कस्साणुक्कस्साणं गहणं किण्ण कीरदे ? ण, तेसिं गाहाए पढमत्थे (-द्धे) परविदत्तादो । एदेण पदेसविहत्ती सूइदा । 'झीणमझीणं' ति उत्ते पदेसविसयं चेव झीणाझीणं घेत्तव्वं; अण्णस्स असंभवादो। एदेण झीणाझीणं सूचिदं । 'हिदियं' ति वुत्ते जहण्णुक्कस्सटिदिगयपदेसाणं गहणं । एदेण टिदियंतिओ सूइदो । एदे तिण्णि वि अत्थे घेत्तूण एक्को चेव अत्थाहियारो; पदेसपरूवणादु $ १. अब इस गाथाका अर्थ कहते हैं। वह इसप्रकार है-मोहनीयकी प्रकृतिमें विभक्ति प्ररूपणा, मोहनीयकी स्थितिमें विभक्तिप्ररूपणा और मोहनीयके अनुभागमें विभक्तिप्ररूपणा करना चाहिये। इस प्रकार यह गाथाके पूर्वार्द्धका अर्थ हैं । इन तीनों अर्थों की अपेक्षा एक ही अर्थाधिकार है। गाथामें ' उक्कस्समणुक्कस्सं' ऐसा कहा है। उससे प्रदेशविषयक उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टका ग्रहण करना चाहिये क्योंकि, यहाँ प्रदेशविभक्तिके सिवा दूसरोंका उत्कृष्टानुत्कृष्ट सम्भव नहीं है। शंका-यहाँ पर उत्कृष्टानुत्कृष्ट पदसे प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चारोंके ही उत्कृष्टानुत्कृष्टका ग्रहण क्यों नहीं किया है ? समाधान-नहीं, क्योंकि प्रकृति, स्थिति और अनुभागका गाथाके पूर्वार्धमें ही कथन कर दिया है, इसलिये उत्कृष्टानुत्कृष्ट पदसे प्रदेशविषयक उत्कृष्टानुत्कृष्टका ही ग्रहण समझना चाहिये। इस प्रकार गुणधर आचार्यने 'उक्कस्समणुक्करसं' इस पदके द्वारा मोहनीयकर्मविषयक प्रदेशविभक्तिका सूचन किया है। गाथामें 'झीणमझीणं' ऐसा कहनेसे प्रदेशविषयक झीणाझीणका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि यहाँ प्रकृत्यादि विषयक झीणाझीणका ग्रहण संभव नहीं है। इस प्रकार गुणधर आचार्यने 'झीणमझीण' इस पदके द्वारा झीणाझीण अधिकारका सूचन किया है। गाथामें ' हिदियं' ऐसा कहनेसे जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिगत प्रदेशोंका ग्रहण किया है। इस पदके द्वारा गुणधर आचार्यने स्थित्यन्तिक अधिकारको सूचित कियाहै। इन तीनों अर्थोंको लेकर एक ही अर्थाधिकार होता है, क्योंकि, इन तीनोंके द्वारा प्रदेश (२) पढमत्थस्स अ० । (२) “तत्थ य कदमाए द्विदीए ट्ठिदपदेसग्गमुक्कड्डणाए ओकड्डणाए च पाओग्गमप्पाओग्गं वा ण एरिसो विसेसो सम्ममवहारिओ। तदो तस्स तहाविहसत्तिविरहाबिरहलवखणत्तेण पत्तझीणाझीणववएसस्स ट्ठिदीओ अस्सिदूण परूवणट्ठमेसो अहियारोओदिण्णो।"-जयध० प्रे० का० ५० ३१२० । हो"द्विदीओ गच्छइ त्ति टिदियं पदेसग्गं टिदिपत्तयमिदि उत्तं होदि। तदो उक्कस्सटिदिपत्तयादीणं सरूवविसेसजाणावणठें पदेसविहत्तीए चूलियासरूवेण एसो अहियारो।"----जमध० प्रे० का० ५० ३३१५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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