SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 318
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० १२ ] तेसु पथदं । ९३२६. 'णाणाजीह भंगविचओ' ति एत्थ 'कीरदे' इथेदेण पदेण संबंधो कायव्वो, अण्णा अस्थावगमाभावादो । जेसु जीवेसु मोहणीयपयडी अत्थि तेसु चेष एत्थ पयदं, मोहणीए अहियारादो । vasurasite मंगविश्व ! * सव्वे जीवा अट्ठावीस सत्तावीस-छब्बीस-चवीस- एकवीससंतकम्मविहत्तिया णियमा अस्थि । ९३२७. सव्वे जीवा अट्ठावीसविहत्तिया ते णियमा अत्थि त्ति संबंधो ण कायव्वो, सवेसिं जीवाणं अट्ठावीसविहसित्ताभावादो । किंतु जो (जे) अट्ठावीसविहत्तिया जीवा, ते सब्वे अस्थि ति संबंधो कायव्वो । एवं सव्वत्थ वत्तव्वं । तदो एदेसिं द्वाणानं मिहत्तिया अविहन्तिया च णियमा अस्थि ति सिद्धं । * सेस विहत्तिया भजियव्वा । २६३ ९३२८. २३, २२, १३, १२, १९, ५, ४, ३, २, १ । एदाणि भयणिजाणि पदाणि । पुणो एदेसिं भणिजपदाणं भंगपमाणपरूत्रणगाहा एसा । तं जहा, 'मजिपदा तिगुणा अण्णोष्णगुणा पुणो वि कायव्या । धुरया रूवूणा धुवसहिया तत्तिया चेव ॥ ३ ॥' Jain Education International irah मोहनीय कर्मकी प्रकृतियां पाई जाती है उनका वहां प्रकरण है । ९३२६. 'णाणाजीवेहिं भंगविचओ इस वाक्यमें 'कीरदे' पदका सम्बन्ध कर लेना चाहिये, अन्यथा अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता। जिन जीवोंमें मोहनीयकर्म विद्यमान है इस अधिकार में उनका ही प्रकरण है, क्योंकि प्रकृत में मोहनीयकर्मका अधिकार है । * जो जीव मोहनीय कर्मप्रकृतियोंकी अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस और इक्कीस विभक्तिवाले हैं वे सब नियमसे हैं । ९३२७. सभी जीव अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले नियमसे हैं इसप्रकार संबन्ध नहीं करना चाहिये, क्योंकि सभी जीवोंके अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता नहीं पाई जाती है । किन्तु ऐसा सम्बन्ध करना चाहिये कि जो जीव अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले हैं वे सभी हैं । इसीप्रकार सभी स्थानों में कहना चाहिये । इस कथनसे इन अट्ठाईस आदि स्थानोंसे युक्त जीव और न अट्ठाईस आदि स्थानोंसे रहित जीव नियमसे हैं यह सिद्ध होता है । * शेष तेईस आदि विभक्तिस्थानवाले जीव कभी होते हैं और कभी नहीं भी होते । ३ ३२८. २३, २२, १३, १२, ११, ५, ४, ३, २, और १ ये स्थान भजनीय हैं । अब इन भजनीय पदोंके अंगोंके प्रमाणको बतलानेवाली गाथा देते हैं " भजनीय पदोंका १ १ इसप्रकार विरलन करके तिगुना करे । पुनः उस तिगुनी बिरलित राशि का परस्पर में गुणा करे । इस क्रियाके करनेसे जो लब्ध आता है उससे अध्रुव For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy