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________________ गा० २२) उत्तरपयडिविहत्तीए भागाभागो १५१ १६०. भागाभागाणुगमेण दुविहो णिद्देसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण छव्वीसं पयडीणं विहत्तिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? अणंता भागा। अविहलिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो! अणंतिमभागो। एवं सम्मत्त-सम्मामि० वत्तव्वं । णवरि, विवरीयं कायव्वं । एवं काययोगि-ओरालियामिस्स-कम्मइय०-अचक्खु०-भवसिद्धि०-आहारि०-अणाहारि त्ति वत्तव्यं । - विशेषार्थ-अभव्यों और क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके कथनमें कोई विशेषता नहीं है। वेदकसम्यग्दृष्टियों में कदाचित् दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रस्थापक एक भी जीव नहीं पाया जाता, और कदाचित् एक जीव तथा कदाचित् अनेक जीव पाये जाते हैं। इसी दृष्टिसे ऊपर मिथ्यात्व और सम्यग्मिध्यात्वकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीवोंके तीन भंग कहे हैं । उपशमसम्यक्त्व सान्तर मार्गणा है। इसमें कदाचित् एक जीव और कदाचित् अनेक जीव प्रथमोपशम या द्वितीयोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होते हैं। अतः इनके परस्पर संयोगसे आठ भंग हो जाते हैं । मिश्रगुणस्थान भी सान्तर मार्गणा है। इसमें अनन्तानुबन्धीकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले कदाचित् एक और अनेक जीव प्रवेश करते हैं । अतः यहां भी परस्परके संयोगसे आठ भंग हो जाते हैं । शेष कथन सुगम है । इसप्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। ६१६०. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण है ? अनन्त बहुभागप्रमाण हैं। अविभक्तिवाले सब जीवोंके कितने भागप्रमाण है ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं । इसीप्रकार सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिध्यात्वकी अपेक्षा कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि यहां प्रमाणको बदल देना चाहिये । अर्थात् इन दोनों प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीव सब जीवोंके अनन्तवें भाग हैं और अविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके अनन्त बहुभाग हैं। इसीप्रकार काययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, आहारक और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये । विशेषार्थ-क्षीणकषाय गुणस्थानवाले आदि जीव ही छब्बीस प्रकृतियोंकी अविभक्तिवाले हैं। शेष सब संसारी जीव छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले होते हैं जो अनन्त बहुभाग हैं। इसी विवक्षासे ऊपर छब्बीस प्रकृतियों की विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीवोंका भागाभाग कहा है। पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव थोड़े हैं क्योंकि जिन्होंने एक बार सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया है ऐसे जीवोंके ही इन दो प्रकृतियोंका सत्त्व पाया जाता है जिनका प्रमाण इनकी अविभक्तिवाले जीवोंसे स्वल्प है । अतः यहां अविभक्तिवालोंका प्रमाण अनन्तबहुभाग और विभक्तिवालोंका प्रमाण अनन्त एकभाग कहा है। ऊपर जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं वहां भी इसीप्रकार समझना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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