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________________ vvvvv जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पयडिविहत्ती २ ६ १५६. अभवसिद्धिय० सव्वपयडीओ णियमा अस्थि । खइयसम्माइट्टीसु एक्कवीसपयडीणं विहत्तिया अविहत्तिया च णियमा अस्थि । वेदगसम्मादिहीसु मिच्छत्तसम्मामि० सिया सव्वे जीवा विहत्तिया, सिया विहत्तिया च अविहत्तिओ च, सिया विहत्तिया च अविहत्तिया च एवं तिण्णि भंगा । अणंताणु० चउक्कस्स विहत्तिया अविहत्तिया च णियमा अस्थि । सम्मत्त-बारसक०-णवणोकसाय० विहत्तिया णियमा अस्थि । उवसमसम्माइटीसु अणंताणुबंधिचउक्कस्स विह० अविह० अह भंगा। सेसाणं पयडीणं सिया विहत्तिओ, सिया विहत्तिया । एवं सम्मामि० । सासणेसु सव्वपयडीणं सिया विहत्तिओ सिया विहत्तिया । अणाहारएसु ओघमंगो। णवरि, सम्मत्तसम्मामि० विह० भयणिज्जा । एवं णाणाजीवेहि भंग-विचओ समत्तो। विशेषार्थ-सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानमें कदाचित् एक जीव क्षपक ही होता है। कदाचित् एक जीव उपशमक ही होता है । कदाचित् अनेक जीव क्षपक ही होते हैं। कदाचित् अनेक जीव उपशमक ही होते हैं। कदाचित् एक जीव क्षपक और एक जीव उपशमक होता है। कदाचित् एक जीव क्षपक और अनेक जीव उपशमक होते हैं। कदाचित् अनेक जीव क्षपक और एक जीव उपशमक होता है तथा कदाचित् अनेक जीव क्षपक और अनेक जीव उपशमक होते हैं। इसी अपेक्षासे ऊपर २३ प्रकृतियोंकी अपेक्षा आठ भंग कहे हैं। पर वहां दोनों श्रेणीवालोंके लोभसंज्वलनका सत्त्व ही पाया जाता है। अतः इसकी अपेक्षा उपर्युक्त दो ही भंग होते हैं। १५६.अभव्योंके सभी प्रकृतियां नियमसे हैं। क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में इक्कीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। वेदकसम्यग्दृष्टियों में कदाचित सभी जीव जीव मिथ्यात्व और सम्यमिथ्यात्वकी विभक्तिवाले हैं १ । कदाचित् अनेक विभक्तिवाले और एक जीव अविभक्तिवाला है २। कदाचित् अनेक जीव विभक्तिवाले और अनेक जीव अविभक्तिवाले हैं ३। इसप्रकार तीन भंग होते हैं । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं । किन्तु सभी वेदकसम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्प्रकृति, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे विभक्तिवाले हैं। उपशमसम्यग्दृष्टियों में अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्ति और अविभक्तिवाले जीवोंकी अपेक्षा आठ भंग होते हैं। शेष चौबीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा कदाचित् एक और कदाचित् अनेक जीव विभक्तिवाले हैं। इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये। सासादन सम्यग्दृष्टियों में सभी प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले कदाचित् एक जीव और कदाचित् अनेक जीव होते हैं। अनाहारक जीवोंमें ओघके समान समझना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सम्यक्प्रकृति और सम्यग्निध्यात्वकी विभक्तिवाले जीव भजनीय हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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