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________________ १५२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ ६१६१. आदेसेण णिरयगईए रईएसु मिच्छत्त-अणताणु० चउक्क० विहत्तिया सम्वेजीवा० केव० ? असंखेज्जा भागा । अविहत्ति० सव्वजीव. केव० भागो ? असंखेजदिभागो । सम्मत्त-सम्मामि विहत्ति० सव्वजीवा० केवडिओ भागो? असंखेअदिभागो। अविहत्तिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? असंखेजा भागा । सेसाणं पयडीणं णत्थि भागाभागो । एवं पढमाए पुढवीए । पंचिंदियतिक्खि-पंचिंतिरि० पज्ज०-देवा-सोहम्मीसाणप्पहुडि जाव सहस्सारेत्ति-वेउव्विय०-वेउव्वियमिस्स०तेउ०-पम्म० वत्तव्वं । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव वत्तव्वं । णवरि, मिच्छत्तभागाभागो णस्थि । एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणि-भवण-वाण-जोदिसि०वत्तव्यं । ६१६२. तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउक० ६१६१. आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नरकियोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले नारकी जीव सब नरकियोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। तथा अविभक्तिवाले नारकी जीव सब नारकियोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले नारकी जीव सब नारकियोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। तया अविभक्तिवाले नारकी जीव सब नारकियोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । उक्त सात प्रकृतियोंके सिवाय शेष प्रकृतियोंकी अपेक्षा नारकियोंमें भागाभाग नहीं है। इसीप्रकार पहली पृथिवी, पंचेन्द्रियतियंच, पंचेन्द्रियतिथंच पर्याप्त, सामान्य देव, सौधर्म और ऐशान स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देव, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंके कहना चाहिये । दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक इसीप्रकार कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि वहां मिथ्यात्वकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है। इसीप्रकार पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमती, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके कहना चाहिये । विशेषार्थ-नरकमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव असं. ख्यात होते हुए भी बहुभाग हैं और इनकी अविभक्तिवाले जीव एक भाग है। पर सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वकी विभक्तिवाले एक भाग और अविभक्तिवाले बहुभाग हैं। इसी बातको ध्यानमें रखकर उपर्युक्त भागाभाग कहा है । तथा पहली पृथिवीसे लेकर पद्मलेश्यावाले जीवोंके इसीप्रकार भागाभाग संभव है। अतः इनके भागाभागको सामान्य नारकियोंके भागाभागके समान कहा। किन्तु दूसरी पृथिवीसे लेकर और जितनी मार्गणाएँ ऊपर गिनाई हैं उनमें मिथ्यात्वका अभाव नहीं होता । अतः इसके भागाभागको छोड़कर शेष कथन सामान्य नारकियोंके समान जाननेका निर्देश किया है। १६२.तियंचगतिमें तियंचोंमें मिथ्यात्व, सम्यकप्रकृति, सम्यगूमिथ्यात्व और अनन्ता - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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