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________________ १७८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ असंखेजरासीसु सव्वत्थ णिरयभंगो । एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी०-भवण-वाण. जोदिसिय त्ति । १८६.तिरिक्खेसुसव्वत्थोवा मिच्छत्त-अणताणुबंधिचउकाणं अविहत्तिया, विहत्तिया अणंतगुणा । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं विवरीयं वत्तव्वं । एवमेइंदिय-बादरसुहुम-पजत्तापजत्त-वणप्फदिकाइय-णिगोद-बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-मदि-सुदअण्णाण असण्णि त्ति वत्तव्वं । णवरि मिच्छत्त-अणंताणु० अप्पाबहुअं णत्थि; अविहत्तियाणमभावादो । पंचिंदियातरिक्खअपज्जत्त-मणुसअपज्ज० - तसअपज्ज० -पंचिंदियअपज्जा -सव्वविगलिंदिय-पज्जत्तापज्जत्त-पुढवि-आउ-तेउ-चाउ० तेसिं-बादर-सुहुमपज्जचापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीर-पज्जत्तापज्जत्त-बादरणिगोदपदिहिद-पज्जत्ताप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । तथा सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके जानना चाहिये। ६१८६.तियंचोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं । यहां सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्ति और अविभक्तिवालोंका कथन इस उपर्युक्त कथनसे विपरीत करना चाहिये । अर्थात् तिर्यंचोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । तथा सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी अविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इसी प्रकार एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय बादर, एकेन्द्रिय सूक्ष्म तथा बादर और सूक्ष्मोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक तथा बादर और सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, निगोद जीव, बादरनिगोद जीव, सूक्ष्म निगोद जीव तथा बादर और सूक्ष्म निगोद जीवोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी और असंयत जीवोंके कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इन एकेन्द्रियादि जीवोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता है क्योंकि इनमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुककी अविभक्तिवाले जीव नहीं हैं। __ पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तक, मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक, त्रस लब्ध्यपर्याप्तक, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, सभी विकलेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय पर्याप्तक, विकलेन्द्रिय अपर्याप्तक, पृथिवी कायिक, जलकायिक, अग्किायिक, वायुकायिक तथा इन चारोंके बादर और सूक्ष्म तथा बादर और सूक्ष्मोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और इनके पर्याप्त अपर्याप्त, बादरनिगोदप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर और इनके पर्याप्त अपर्याप्त जीवोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनकी अवि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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