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________________ गा० २२) पडिट्ठाणविहत्तीए अप्पाबहुआणुगमो ३७१ लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छामोवहिदे संखेजावलियाहि पालिदोवमे खंडिदे एगभागो एकवीसविहत्तियाणमुवकमणकालो होदि । उवरिमवीसकोडाकोडीरूवमेत्तपलिदोवमगुणगारादो हेट्ठा आवलियाए हविदगुणगारो संखेजगुणो ति कुदो णव्वदे ? पलिदोवममेत्तकम्मष्टिदीए आवाधा संखेजावलियमेत्ता होदि ति आइरियवयणादो, आवाधाकंडयपरूवयसुत्तादो च णव्वदे । एदम्हादो अवहारकालादो एकवीसविहत्तियअवहारकालो जदि वि संखेजगुणहीणो तो वि संखेजावलियमेत्तेण होदव्वं अद्रुत्तरसदमेतजीवहिंतो उवरि उवक्कमणाभावादो। अह जइ बहुआ होति आउअवसेण, तो वि आवलियाए असंखेजदिभागमेतेण होदव्वं । एदमवहारकालं तप्पाओग्ग-असंखेजरूवेहि गुणिदे सत्तावीसवित्तिय-अवहारकालो जेण होदि तेण सत्तावीसविहत्तियाणमवहारकालो असंखेजावलियमेतो त्ति सिद्धं । विभक्तिस्थानवाले जीवोंके संख्यात उपक्रमण-समय प्राप्त होते हैं तो दो सागर प्रमाण कालमें कितने उपक्रमण-समय प्राप्त होंगे ! इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे इच्छारशिको गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उसमें प्रमाणराशिका भाग देनेपर संख्यात आवलियोंसे पल्योपमको भाजित करने पर एक भागप्रमाण इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका उपक्रमणकाल आता है। शंका-ऊपर अर्थात् 'तो दोसु सागरेसु किं लभामो' यहां पर जो पल्यका गुणकार बीस कोडाकोड़ी अंक प्रमाण है, उससे नीचे अर्थात् 'संखेज्जावलियाहि पलिदोवमे खंडिदे' यहां पर आवलिका गुणकार जो संख्यातगुणा स्थापित किया है, सो यह बात किस प्रमाणसे जानी जाती है ? समाधान-एक पल्य कर्मस्थितिकी आबाधा संख्यात आवलिप्रमाण होती है इस प्रकारके आचार्य वचनसे और आबाधाकाण्डकका कथन करनेवाले सूत्रसे जानी जाती है। इस अवहारकालसे इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अवहारकाल यद्यपि संख्यातगुणा हीन होता है तो भी वह संख्यात आवलि प्रमाण होना चाहिये, क्योंकि अधिकसे अधिक एक साथ एक सौ आठ क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उपक्रमण करते हैं अधिक नहीं । अथवा आयुकी न्यूनाधिकताके कारण अधिक जीव उपक्रमण करते हैं ऐसा मान लिया जाय तो भी इक्कीस विभक्तिस्थान वाले जीवोंका अवहारकाल आवलिके संख्यातवें भाग प्रमाण होना चाहिये। और इस अवहारकालको सत्ताईस विभक्तिस्थान वाले जीवोंके अवहारकालके योग्य असंख्यात अंकोंसे गुणित कर देनेपर चूंकि सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अवहार काल प्राप्त होता है अतः सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अवहारकाल असंख्यात आवलि प्रमाण सिद्ध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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