SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 395
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७० . जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ . * एकवीसाए संतकम्मविहत्तिया असंखेजगुणा। ६४०३. को गुणगारो? आवलियाए असंखेजदिभागो । कुदो ? बे सागरोवमकालभंतरउवक्कमणकालम्मि संचिदत्तादो। गुणगारो आवलियाए असंखेजदिभागो ति कुदो णव्वदे ? आइरियपरंपरागयसुत्ताविरुद्धवक्खाणादो। अहवा गुणगारो तप्पाओग्गअसंखेजरूवमेत्तो, सम्मामिच्छत्तुव्वेल्लणकालम्मि संचिदजीवे पडुच्च पलिदोवमस्स आवलियाए असंखेजदिमागो चेव भागहारो होदि त्ति णियमकारणाणुवलंभादो। जुत्तीए पुण असंखेजावलियाहि भागहारेण होदव्वं, अण्णहा एकवीसविहत्तियभागहारादो असंखेजगुणत्ताणुववत्तीदो। तं जहा-संखेजावलियाओ अंतरिय जदि संखेजा उवक्कमणसमया एकवीसविहत्तियाणं लब्भंति, तो दोसु सागरेसु किं जीव बहुत पाये जाते हैं, इन दोनों कारणोंसे जाना जाता है कि यहां गुणकारका प्रमाण पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। * सत्ताईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे इक्कीस विभक्तिस्थानबाले जीव असंख्यातगुणे हैं। ६४०३. शंका-प्रकृतमें गुणकारका प्रमाण क्या है ? समाधान-प्रकृतमें गुणकारका प्रमाण आवलीका असंख्यातवां भाग है । शंका-प्रकृतमें आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकारका प्रमाण क्यों है ? समाधान-क्योंकि प्रकृतमें दो सागरोपमकालके भीतर जितने उपक्रमण काल होते हैं उनमें संचित हुए इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीव लिये गये हैं। अतएव प्रकृतमें गुणकारका प्रमाण आवलीका असंख्यातवां भाग कहा है। शंका-फिर भी इससे यह कैसे जाना जाता है कि प्रकृत में गुणकारका प्रमाण आवलीका असंख्यातवां भाग है ? समाधान-आचार्य परम्परासे सूत्रके अविरुद्ध जो व्याख्यान चला आ रहा है उससे जाना जाता है कि प्रकृतमें गुणकारका प्रमाण आवलीका असंख्यातवां भाग है। अथवा तत्प्रायोग्य अर्थात् सत्ताईस विभक्तिस्थानमें संचित जीवराशिका इक्कीस विभक्तिस्थानमें संचित जीवराशिमें भाग देनेपर जो असंख्यात प्रमाण लब्ध आता है उतना ही यहां गुणकारका प्रमाण है; क्योंकि पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण सम्यग्मिथ्यात्वके उद्वेलन कालमें संचित हुए जीवोंकी अपेक्षा विचार करनेपर पल्योपमका भागहार आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही होता है, इस प्रकारके नियमका कोई कारण नहीं पाया जाता। परन्तु युक्तिसे असंख्यात आवली प्रमाण भागहार होना चाहिये, अन्यथा वह भागहार इक्कीस विभक्तिस्थानके भागहारसे असंख्यात गुणा नहीं हो सकता है। आगे इसीका खुलासा करते हैं-संख्यात आवलियोंके अन्तरालसे यदि इक्कीस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy