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________________ गा० २२ ] पावहत्ती हा समुक्कित्तणा २३०. वेदानुवादेण इत्थवेदे आत्थ अट्ठावीस - सत्तावीस छन्वीस-चउवीस-तेवीसबावीस-एक्कवीस-तेरस - बारसपयडिट्टाणाणि । एवं णवुंसय वेदम्मि वत्तत्र पुरिसवेदे अस्थि अट्ठावीस - सत्तावीस - छव्वीस - चउवीस तेवीस-बावीस-एक्कवीस-तेरस - बीरस-एक्कारस-पंचपडणाणि । अचगदवेद ० अन्थि चउवीस एकवीस-एक्कारस-पंच- चत्तारि - तिण्णिदोणि- एकपट्टिणाणि 1) ६२३१. कसायाणुवादेण कोधक० अस्थि अट्ठावीस सत्तावीस-छब्वीस - चउवीस-तेवीसवावीस - एकवीस - तेरस - बारस-एक्कारस-पंच- चत्तारिपयडिट्ठाणाणि । एवं माणक ० | पावरि तिष्णिपयडिट्ठाणं पि अस्थि । एवं माया० । णवरि दोपयडिट्ठाणं पि अस्थि । एवं लोभ० । वरि एगपयडिद्वाणं पि अस्थि । अकसाईसु अस्थि चउवीस-एक्कवीसपयडिट्ठाणाणि । एवं सुहुमसांपराय० - जहाक्खाद० वत्तव्वं । णवरि सुहुमसांपराय० पाणं पि अस्थि । चौबीस और इक्कीस प्रकृतिरूप स्थान होते हैं । I विशेषार्थ - कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि देव और नारकियोंमें उत्पन्न तो होता है पर वह अपर्याप्त अवस्था में ही क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है, अतः वैक्रियिककाययोगी जीव के २२ प्रकृतिक स्थान नहीं कहा । नील और कृष्ण लेश्या में २१ प्रकृतिक स्थान मनुष्यों की अपेक्षा से जानना चाहिये, क्योंकि सौधर्मादिस्वर्ग में तीन अशुभ लेश्याएं नहीं होतीं । नारकियों में २१ प्रकृतिक स्थान पहले नरकमें ही पाया जाता है । पर वहां कपोत लेश्या ही होती है। २३०. वेदमार्गण के अनुवाद से स्त्रीवेद में अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस, तेईस, बाईस, इक्कीस, तेरह और बारह प्रकृतिरूप स्थान होते हैं । इसीप्रकार नपुंसकवेद में कहना चाहिये । पुरुषवेद में अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस, तेईस, बाईस, इक्कीस, तेरह, बारह, ग्यारह और पांच प्रकृतिरूप स्थान होते हैं । अपगतवेद में चौबीस, इक्कीस, ग्यारह, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिरूप स्थान होते हैं । ९२३१• कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायी जीवोंके अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस तेईस, बाईस, इक्कीस, तेरह, बारह, ग्यारह, पांच और चार प्रकृतिरूप सत्त्वस्थान होते हैं । इसीप्रकार मानकषायी जीवोंके भी कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मानकपायी जीवोंके तीन प्रकृतिरूप स्थान भी पाया जाता है। इसीप्रकार मायाकषायी जीवोंके भी कहना चाहिये | इतनी विशेषता है कि इनके दो प्रकृतिरूप स्थान भी पाया जाता है। इसी प्रकार लोभकषायी जीवोंके भी कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके एक प्रकृतिरूप स्थान भी पाया जाता है। अकपायी जीवोंके चौबीस और इक्कीस प्रकृतिरूप स्थान होते हैं 1 इसीप्रकार सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात संयमी जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सूक्ष्मसपरायिक संयतोंके एक प्रकृतिरूप सत्त्वस्थान भी पाया जाता है । Jain Education International २०७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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