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________________ गा० २२ ] भुजगारविहत्तीए कालो . ६४२८. ऊणस्स अद्धपोग्गलपरियट्टस्स उवढपोग्गलमिदि सण्णा । उपशब्दस्य हीनार्थवाचिनो ग्रहणात् । तं जहा-एगो अणादियमिच्छादिट्ठी तिण्णि वि करणाणि काऊण पढमसम्मत्तं पडिवण्णो। तत्थ सम्मत्तं पडिवण्णपढमसमए संसारमणतं सम्मत्तगुणेण छेत्तूण पुणो सो संसारो तेण अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तो कदो। सव्वलहुएण कालेण मिच्छत्तं गंतूण सव्वजहण्णुव्वेलणद्धाए सम्मत-सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेलिय अप्पदरं करिय अवहाणमुबगदो। पुणो एदेण पलिदो० असंखे० भागेणूणमद्धपोग्गलपरियट्टमवष्टिदेण सह परिभमिय अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे सम्मत्तं घेत्तण भुजगारविहत्तिओ जादो। एवमवडिदस्स पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेणूणमद्धपोग्गलपरियहमुक्कस्सकालो। एवमचक्खु० भवसिद्धि० ।। - ४२६. संपहि जइवसहाइरियपरूविदमोघमुच्चारणसरिसं भणिय बालजणाणुग्गहटं परूविदमुच्चारणादेसं वत्तइस्सामो। ६४३०. आदेसेण णिरयगईए णेरईएसु भुज. अप्प० जहण्णुक्क० एगसमओ। ६ ४२८. अर्धपुद्गलपरिवर्तनकालसे कुछ कम कालकी उपार्धपुद्गलपरिवर्तन संज्ञा है, क्योंकि यहांपर 'उप' शब्दका अर्थ हीन लिया है। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-कोई एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव तीनों ही करणोंको करके प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। तथा सम्यक्त्वके प्राप्त होनेके पहले समयमें सम्यक्त्वगुणके द्वारा अनन्त संसारका छेदन कर उसने उस संसारको अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र कर दिया । अनन्तर वह अतिलघु कालके द्वारा मिथ्यात्वको प्राप्त होकर और सबसे जघन्य उद्वेलनकालके द्वारा सम्यक्प्रकृति तथा सम्यमिथ्यात्वप्रकृतिकी उद्वेलना करके २८ विभक्तिस्थानसे सत्ताईस और सत्ताईस विभक्तिस्थानसे छब्बीस, इसप्रकार अल्पतर करता हुआ छब्बीस विभक्तिस्थानमें अवस्थानको प्राप्त हो गया। यह सब काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है । अतः इस कालसे न्यून अर्धपुद्गलपरिवर्तन तक अवस्थित विभक्तिस्थानके साथ संसारमें परिभ्रमण करके वह जीव संसारमें रहने का काल अन्तर्मुहूर्त शेष रह जानेपर सम्यक्त्वको ग्रहण करके छब्बीस विभक्तिस्थानसे अट्ठाईस विभक्तिस्थानको प्राप्त करके भुजगारविभक्तिस्थानवाला हो जाता है। इसप्रकार अवस्थित विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र प्राप्त होता है। इसीप्रकार अचक्षुदर्शनी और भब्य जीवोंके कहना चाहिये। ६४२६. इसप्रकार यतिवृषभाचार्यके द्वारा कहे गये ओघनिर्देशका, जो कि उच्चारणाके समान है, कथन करके अब बाल जनोंके अनुग्रहके लिये कहे गये उच्चारणामें वर्णित आदेशको बतलाते हैं ६४३०. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें भुजगार और अल्पतरका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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