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________________ १७४ जयधवलास हिदे कसा पाहुडे [ पयडिविहत्ती २ कसाय० - जहाक्खाद० वत्तन्वं । णवरि चउवीसपयाडेआलावो कायव्वो । अवगदवेद० मिच्छ०-सम्म० -सम्मामि ० अष्टकसाय - दोवेद० विह० अंतरं केव० १ जह० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्तं । सेसपय० विह० अंतरं के० १ जह० एगसमओ, उक्क० छम्मासा । ९१८५. सुहुमसांपराइय० दंसणतिय एक्कारसक० णवणोकसाय० वि० अंतरं haa १ जह० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्तं । लोभसंजलण० विहत्ति० अंतरं जह० एगसमओ उक्क० छम्मासा । उवसमसम्माइट्ठी० अट्ठावीसपय० विह० अंतरं के० १ जह० एगसमओ, उक्क० चउवीसमहोरताणि । सत्तरादिंदियाणि त्ति किण्ण परूविजदे ? ण, पाहुडगंथाभिप्पाएण उवसमसम्माइट्टीणं सत्तरादिदियंतरणियमाभावादो | कम्मइय० - अणाहार० सम्मत्त सम्मामि० विह० अंतरं जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । सव्वत्थ अविहत्तियाणं कालंतरपरूवणा जाणिय कायव्वा, सुगमत्तादो । एवमंतरं समत्तं कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके अट्ठाईस प्रकृतियोंके स्थान में चौबीस प्रकृतियों का कथन करना चाहिये । अपगतवेदी जीवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिध्यात्व, आठ कषाय और दो वेदकी विभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एकसमय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । तथा शेष प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले अपगतवेदी जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । $१८५.सूक्ष्मसांपरायिक संयत जीवों में तीन दर्शनमोहनीय, ग्यारह कषाय और नौ नोकषायकी विभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । लोभसंज्वलनकी विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिन रात हैं । शंका- अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले उपशमसम्यग्दृष्टियोंका अन्तरकाल सात दिन रात क्यों नहीं कहा ? समाधान- नहीं, क्योंकि कसायपाहुड ग्रन्थके अभिप्रायानुसार उपशमसम्यग्दृष्टियों का अन्तरकाल सात दिन रात होनेका नियम नहीं है । कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें सम्यक् प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । सभी मार्गणाओंमें अविभक्तिवाले जीवोंके काल और अन्तरका कथन जानकर करना चाहिये, क्योंकि उसका कथन सुगम है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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