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________________ गा० २२ ] उत्तरपयडिविहत्तीए भावाणुगमो १७५ १८६६ भावाणुगमेण दुविहो णिदेसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्व विशेषार्थ-अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं इसलिये ओघकी अपेक्षा इनका अन्तर नहीं है । गतिमार्गणा से लेकर अनाहारक मार्गणा तक इसी प्रकार जानना । पर जो आठ सान्तर मार्गणाएं और अकषायी, यथाख्यातसंयत, अवगतवेदी, कार्ममकाययोगी तथा अनाहारक जीव हैं इनमें अन्तरकाल पाया जाता है । सान्तर मार्गणाओंमें लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, सासादन, मिश्र, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी और उपशमसम्यग्दृष्टियोंका जो जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल है वही यहीं अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना । वैक्रियिक मिश्रकाययोगियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल वही है जो वैक्रियिक मिश्रकाययोगियोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल है। केवल सम्यक्प्रकृति और सम्यमिथ्यात्वकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस मुहूर्त है, इतनी विशेषता है । उपशमश्रेणीकी अपेक्षा उपशान्तमोह और यथाख्यातसंयतोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व होता है इसी अपेक्षासे अकषायी और यथाख्यातसँयतोंमें चौबीस प्रकृतियोंकी विभक्तिवाले जीवोंका अन्तर आहारककाय योगियोंके समान कहा है । तथा अपगतवेदियोंमें मिथ्यात्व, सम्यगमिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, आठ कषाय और दो वेदकी विभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल उपशमश्रेणीकी अपेक्षा जानना । उपशमश्रेणीका अन्तर ऊपर बतलाया ही है । तथा शेष प्रकृतियोंका अन्तर क्षपकश्रेणीकी अपेक्षासे जानना । क्षपकश्रेणीका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना होता है। इसीप्रकार सूक्ष्मसांपरायिक जीवोंके कथन करना । इतनी विशेषता है कि सूक्ष्मसंपरायमें क्षपकश्रेणीवालोंके एक सूक्ष्म लोभ रहता है अत: इसका अन्तर क्षपकश्रेणीकी अपेक्षासे और शेष प्रकृतियोंका अन्तर उपशमश्रेणीकी अपेक्षासे कहना । कार्मणकाययोगी और अनाहारकोंमें सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाले जीवोंका जो जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है उसका मतलब यह है कि उक्त दो प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीव कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक मरकर विग्रहगतिसे नहीं जाते हैं । यहां प्राभृत ग्रन्थके अभिप्रायानुसार उपशमसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तरकाल सात दिन रात न बतलाकर साधिक चौबीस दिन रात बतल या है सो प्रकृतमें प्राभृत ग्रन्थसे मूल कसायपाहुड, उसकी चूर्णि और उच्चारणावृत्ति इन सबका ग्रहण होता है । क्योंकि इसका अधिकतर खुलासा उच्चारणावृत्तिमें ही मिलता है। इसप्रकार अन्तरानुयोगद्वार समाप्त हुआ। . . ६१८६.भावानुगमकी अमेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ निर्देश और आदेश निर्देश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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