SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गां० २२ ) पयडिट्ठाणविहत्तीए अंतरं २८१ अणाहारि० कम्मइयभंगो। - एवं कालो समतो। . ___ * अंतराणुगमेण एक्किस्से विहत्तीए णत्थि अंतरं। ३०८. कुदो ? खवगसेढीए उप्पण्णत्तादो । ण च खविदकम्मंसाण पुणरुप्पत्ती अस्थि, मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगाणं संसारकारणाणमभावादो। ण च कारणेण विणा कजमुप्पजइ, अणवत्थापसंगादो। अनाहारक जीवोंमें कार्मण काययोगियोंके समान जानना चाहिये । विशेषार्थ-कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामें २१ विभक्तिस्थानका जघन्य काल जो अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक सागर बतलाया है सो यहाँ उत्कृष्ट काल कापोत लेश्याकी अपेक्षासे जानना चाहिये; क्योंकि यह काल प्रथम नरककी अपेक्षासे प्राप्त होता है और प्रथम नरकमें कपोन लेश्या ही होती है। किन्तु कृष्म और नील लेश्यामें २१ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त ही प्राप्त होगा, क्योंकि २१ विभक्तिस्थानके रहते हुए कृष्ण और नील लेश्या कर्मभूमिज मनुष्योंके ही सम्भव है पर इनके प्रत्येक लेश्याका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्तसे अधिक नहीं होता है। तथा कृष्ण और नील लेश्यामें जो २२ विभक्तिस्थानका निषेध किया है सो इसका कारण यह है कि २२ विभक्तिस्थानके रहते हुए यदि अशुभ लेश्या होती है तो एक कापोत लेश्या ही होती है। लेश्याओंमें शेष कालोका कथन सुगम है अतः यहाँ खुलासा नहीं किया है। इसी प्रकार आगेकी मार्गणामों में भी अपने अपने विभक्तिस्थानोंका काल सुगम होनेसे नहीं लिखा है। हाँ वेदकसम्यक्त्वमें २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल जो कुछ कम छयासठ सागर प्रमाण बतलाया है सो इसका कारण यह है कि वेदक सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल पूरा छयासठ सागर है जिसमें कृतकृत्यवेदक तकका काल सम्मिलित है, अतः इसमेंसे सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृतिके क्षपणा कालको कम कर देनेपर २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है। इसप्रकार कालानुयोगद्वार समाप्त हुआ। * अन्तरानुगमकी अपेक्षा एक प्रकृतिक स्थानका अन्तर नहीं होता है। ६३०८. शंका-एक प्रकृतिक स्थानका अन्तर क्यों नहीं होता है ? समाधान-क्योंकि एक प्रकृतिक स्थान क्षपकश्रेणीमें होता है, अतः उसका अन्तर नहीं पाया जाता। क्योंकि जिन कर्मों का क्षय कर दिया जाता है उनकी पुनः उत्पत्ति होती नहीं, क्योंकि उनका क्षय करदेनेवाले जीवोंके संसारके कारणभूत मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग नहीं पाये जाते । और कारणके विना कार्यकी उत्पत्ति मानना युक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर कार्य-कारणभावकी व्यवस्था नहीं बन सकती। .. ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy