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________________ ३४६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ ६३७६. आदेसेण णेरइएसु वावीस० अंतरं के० १ जह० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्तं । सेसप० णत्थि अंतरं । एवं पढमाए पुढवीए, तिरिक्ख-पंचिं० तिरिक्खपंचिं०तिरि०पजत्त देव-सोहम्मादि जाव सबहकाउलेस्सिया ति वत्तव्वं । णवरि सव्वटे वावीस० उक० पलिदो० असंखे० भागो। विदियादि जाव सत्तमि त्ति सव्वपदाणं णत्थि अंतरं । एवं पंचिं० तिरि० जोणिणी-पंचिं० तिरि० अपज्ज०-भवणवाण -जोदिसि -सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय ०-पंचि० अपज ० -पंचकाय ० -तसअपज०-वेउबिय-किण्ह० णील० वत्तव्वं । मणुसअपज्ज. अहावीस-सत्तावीस-छव्वीस अंतरं केव० ? जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । क्तिस्थानोंका अन्तरकाल ओघके समान कहा है। किन्तु स्त्रीवेदी मनुष्योंके २५, २२, १३, १२, ११, ४, ३, २, और १ विभक्तिस्थानोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व प्राप्त होता है, क्योंकि कोई भी स्त्रीवेदी मनुष्य दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीयकी क्षपणा न करे तो अधिकसे अधिक वर्षपृथक्त्व काल तक नहीं करता है ऐसा नियम है। ३७९. आदेशकी अपेक्षा नाराकयोंमें बाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है। नारकियोंमें शेष विभक्तिस्थानोंका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है। इसीप्रकार पहली पृथिवीमें नारकियोंके तथा सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तियंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त जीवोंके, सामान्य देवोंके, सौधर्म स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंके और कापोत लेश्यावाले जीवोंके अन्तरकाल कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धि में बाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक सभी पदोंका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है । इसीप्रकार पंचेन्द्रियतिथेच योनिमती, पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, समी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावरकाय, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, वैक्रियिककाययोगी, कृष्णलेश्यावाले और नील लेश्यावाले जीवोंके अन्तरकाल कहना चाहिये। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंमें अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अन्तर काल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। विशेषार्थ-नरकमें जो २२ विभक्तिस्थानका जघन्य अन्तर एक समय कहा है इसका यह तात्पर्य है कि नरकमें जो पहले २२ विभक्तिस्थानवाले जीव थे उनके एक समयके पश्चात् २२ विभक्ति स्थानवाले जीव वहां पुनः उत्पन्न होसकते हैं। तथा उत्कृष्ट अन्तर जो वर्षपृथक्त्व कहा है इसका यह तात्पर्य है कि यदि २२ विभक्तिस्थानवाले जीवोंका नरकमें उत्पन्न होना बन्द हो जाय तो अधिकसे अधिक वर्षपृथक्त्व काल तक ही ऐसा For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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