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________________ गो० ३३] - भुजगारविहत्तीए अंतराणुगमो ग्गियव्वो त्ति । सासण. अवष्टि० जह• एयसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे. भागो । अभविय० अवहि० सव्वद्धा। एवं कालाणुगमो समतो।। ४६४. अंतराणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओषेण राज. अप्पदर० अंतरं के० १ जह० एगसमओ, उक्क० चउवीस-अहोरत्ता सादि० । अवडि पत्थि अंतरं । एवं सव्वणिरय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख०-पांचं० तिरि० पञ्जापंचिंतिरि जोणिणी-मणुसतिय-देव-भवणादि जाव उवरिमगेवज०-पंचिंदिय-पंचिं. पज०-तस-तसपज०-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-वेउब्धिय-तिण्णिवेद०-चत्तारिकसा०-असंज० चक्खु०-अचक्खु०-छलेस्स० -भवसिद्धि०-सण्णि०-आहारि सम्यक्त्वका काल संख्यातगुणा है। जिसका प्रतिपादन स्वयं वीरसेन स्वामी २४ विभक्तिस्थानके उत्कृष्टकालका कथन करते समय कर आये हैं। इससे तो यही सिद्ध होता है कि उपशमसम्यक्त्वमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना हो सकती है। स्वयं वीरसेन स्वामी इसे प्रवाहमान उपदेश बतला रहे हैं। तथा यतिवृषभ आचार्यने जो २४ विभक्तिस्थानका उत्कृष्टकाल साधिक एक सौ बत्तीस सागर बतलाया है वह उपशमसम्यक्त्वमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना माने बिना बन नहीं सकता । अतः सिद्ध होता है कि प्रकृत कषायप्राभूतमें उपशमसम्यक्त्वके रहते हुए अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना हो सकती है यह उपदेश मुख्य है । और अन्तमें स्वयं वीरसेन स्वामी इसी उपदेश पर जोर देते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टियों में अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अभव्यों में अवस्थित विभक्तिस्थानपाले जीव ही सर्वदा पाये जाते हैं इसलिये उनका सर्वकाल है। इसप्रकार कालानुगम समाप्त हुआ। ६१६१. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओपनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा भुजगार और अल्पतर विभक्तिस्थानवालोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिन रात है । अवस्थित विभक्तिस्थानवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं पाया जाता है। इसीप्रकार समी नारकी, सामान्य तियंच, पंचेन्द्रिय तियंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त, पंचेन्द्रियतिर्यच योनिमती, सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, स्त्रीवेदी मनुष्य, सामान्यदेव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, प्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदपाले, क्रोधावि चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, ग्रहों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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