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________________ जयंधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पडिविहत्ती २ पमाणाणुकूलत्तदंसणादो। * तेरसण्हं संतकम्मविहत्तिया संखेजगुणा । ६ ३६६. कुदो ? चदुण्हं वित्तियकालादो संखेजगुणम्मि तेरसविहत्तियकालम्मि संचिदजीवाणं पि जुत्तीए संखेजगुणत्तदंसणादो। तेरसविहत्तियकालस्स संखेजगुणत्तं कथं व्वदे ? जुत्तीदो। तं जहा-थीणगिद्धियादिसोलसकम्माणं खवणकालो मणपजवणाणावरणादिवारसण्हं देसघादीबंधकरणकालो अंतरकरणकालो अंतरकरणे कदे णqसयवेदक्खवणकालो च एदे चत्तारि वि काला तेरसवित्तियस्स । अस्सकण्णकरणकालो कोधकिहीकरणकालो कोधतिष्णिसंगहकिट्टीवेदयकालो च एदे तिणि वि चदुहं विहत्तियस्स । एदे तिण्णिषि काले पेक्खिदण पविल्लकालो संखेजगुणो। कालतियं पेक्खिदण पुचिलकालचउकं विसेसाहियं किण्ण होदि ? ण, णवण्हं कालाणं समुदयसमागमेण कालचदुक्कुप्पत्तीदो । के ते णवकाला? जीवोंके संचयकी पद्धति प्रमाणानुकूल देखो जाती है। * चार विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे तेरह विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यात गुणे होते हैं। ६३६१. शंका-चार विभक्तिस्थानवाले जीवोंसे तेरह विभक्तिस्थानवाले जीव संख्यातगुणे क्यों हैं ? ___समाधान-चूंकि चार विभक्तिस्थानके कालसे तेरह विभक्तिस्थानका काल संख्यातगुणा है, इसलिये युक्तिसे यही सिद्ध होता है कि चार विभक्तिस्थानके कालमें संचित हुए जीवोंसे तेरह विभक्तिस्थानके काल में संचित हुए जीव संख्यातगुणे होते हैं। __ शंका-चार विभक्तिस्थानके कालसे तेरह विभकिस्थानका काल संख्यात गुणा है यह केसे जाना जाता है ? समाधान-युक्तिसे जान जाता है। उसका खुलासा इसप्रकार है-स्त्यानगृद्धि आदि सोलह कर्मों का क्षपणकाल, मनःपर्यय ज्ञानावरण आदि बारह कर्मोंका देशघातिबन्धकरणकाल, अन्तरकरणकाल, और अन्तरकरण करनेके अनन्तर नपुंसकवेदका क्षपणकाल ये चारों मिलाकर तेरह विभक्तिस्थानका काल है । तथा अश्वकर्णकरणकाल, क्रोधकृष्टिकरणकाल और क्रोधकी तीन संग्रहकृष्टियोंका वेदककाल ये तीनों ही चार विभक्तिस्थानके काल हैं। इस. प्रकार इन तीनों कालोंको देखते हुए इनकी अपेक्षा पूर्वोक्त तेरह प्रकृति स्थानका काल संख्यातगुणा है। शंका-पूर्वोक्त तेरह विभक्तिस्थानसंबन्धी चारों काल चार विभक्तिसंबन्धी तीनों कालोंसे विशेषाधिक क्यों नहीं हैं ? समाधान नहीं, क्योंकि नौ कालोंके समुदायके समागमसे चार कालोंकी उत्पत्ति हुई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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