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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । पयडिविहत्ती २ जहण्णवड्ढीहाणीअवहाणाणि तिणि वि तुल्लाणि । एवं सव्वणिरय-तिरिक्खपंचिंदियतिरिक्खतिय-मणुसतिय-देव-भवणादि जाव उवरिमगेवज०-पंचिंदिय-पंचिं०पञ्ज-तस-तसपज-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालिय०-वेउव्विय-तिण्णि वेद-चत्तारिकसाय-असंजद० चक्खु०-अचक्खु-छलेस्सा०-भवसिद्धि-सण्णि-आहारीणं वत्तव्वं । पंचिंतिरि०अपज. जहण्णहाणिअवहाणाणि दो वि तुल्लाणि । एवं मणुसअपञ्ज० -अणुद्दिसादि जाव सव्वह० -सव्वएइंदिय -सव्वविगलिंदिय- पंचिंदियअपज०-पंचकाय-तसअपज०-ओरालियमिस्स०-वेउब्वियमिस्स०-कम्मइय० -अवगद०. मदि-सुद-अण्णाण-विहंग-आभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज०-संजद०-सामाइय-छेदो०परिहार०-संजदासंजद-ओहिदसण-सम्मादि०- खइय०-वेदय०- मिच्छादि०- असण्णिहै-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । इनमेंसे ओघकी अपेक्षा जघन्यवृद्धि, जघन्यहानि और अवस्थान ये तीनों समान हैं। इसीप्रकार सभी नारकी, सामान्य तियंच, पंचेन्द्रिय तिथंच, पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियंच, पंचेन्द्रिययोनिमती तिथंच, सामान्य, पर्याप्त और स्त्रीवेदी ये तीन प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, छहों लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये। विशेषार्थ-जघन्य वृद्धि और जघन्य हानि एक प्रकृतिकी होती है अतः यहां ओघकी अपेक्षा जघन्य वृद्धि जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानको समान कहा है। ऊपर और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी इसीप्रकार जानना चाहिये । पंथेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें जघन्य हानि और अवस्थान ये दोनों समान हैं। इसीप्रकार मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, सभी एकन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, पांचों स्थावर काय, प्रसलब्ध्यपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अपगतवेदी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये। विशेषार्थ-इन मार्गणास्थानों में वृद्धि तो होती ही नहीं, हां हानि और अवस्थान होता है। सो सर्वत्र जघन्य हानिका प्रमाण एक है अत: यहां सबकी जघन्य हानि और अवस्थानको समान कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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