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________________ गा० २२ ] विहन्ती समुचितायुगमो ४३७ अणाहारीणं वत्तव्वं । आहार० - आहारमिस्स ० णत्थि अप्पाबहुअं । एवमकसाय०सुहुमसां पराय ० - जहाक्खाद० - अभवसि ० - उबसम० - सासण० सम्मामि० वत्तव्वं । एवं जहण्णप्पा बहुअं समत्तं । एवं पदणिक्खेवो समत्तो । १४८५. वड्ढीविहत्तीए तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि समुक्कित्तणा जाव अप्पा बहुए ति । समुक्कित्तणाणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओषेण अत्थि संखेजभागवड्ढीहाणी ओ संखेजगुणहाणी अवद्वाणं च । एवं मणुस - तिय पंचिदिय पंचिं ० पञ्ज० -तस तसपञ्ज०- पंचमण०- पंचवचि० - कायजोगि० ओरालिय० - पुरिस० - चत्तारिक ० चक्खु०-अचक्खु०- सुक्क० भवसि ०-सण्णि आहारीणं वत्तव्वं । ป आहारक काययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके प्रकृतियोंकी वृद्धि और हानिसंबन्धी अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता है । इसीप्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यात संयत, अभव्य, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । तात्पर्य यह है कि इन मार्गणाओंमें हानि और वृद्धि तो है ही नहीं, केवल अवस्थान है अतः अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता । इसप्रकार जघन्य अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । इसप्रकार पदनिक्षेप अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । ४८५. वृद्धिविभक्तिका कथन करते हैं। उसके विषय में समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक ये तेरह अनुयोगद्वार होते हैं । उनमें से समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश | उनमेंसे ओधनिर्देशकी अपेक्षा संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि, संख्यातगुणहानि और अवस्थान होते हैं । इसीप्रकार सामान्य, पर्याप्त और स्त्रीवेदी इन तीन प्रकारके मनुष्य, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काय योगी, पुरुषवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये । Jain Education International विशेषार्थ - एक स्थान से दूसरे स्थानके प्राप्त होते समय जो हानि और वृद्धि और अवस्थान होता है वह उसके संख्यातवें भाग है या संख्यात गुणा, इसका विचार वृद्धि विभक्ति में किया गया है । यद्यपि हानिकी अपेक्षा संख्यात भाग हानि, संख्यातगुण हानि और इनके अवस्थान संभव हैं, क्योंकि क्षपक जीवोंके दो प्रकृतिक विभक्तिस्थानसे एक प्रकृतिक विभक्तिस्थानके प्राप्त होते समय या ग्यारह विभक्तिस्थानसे पांच या चार विभक्तिस्थानके प्राप्त होते समय संख्यात गुणहानि और उसका अवस्थान होता है तथा शेष हानियां और उनके अवस्थान संख्यात भाग हानि रूप ही होते हैं। पर वृद्धिकी अपेक्षा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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