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________________ و م م जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पयडिविहत्ती २ विहात्ति० जह० एगसमओ। आहार० अठ्ठावीसपयडीणं विह० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । आहारमि० अट्ठावीसपय० विहत्ती० जहण्णुक्क० अंतोमु० । कम्मइय० अहाबीसप० विहत्ती० जह० एगस०, उक्क० तिण्णि समया । खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्प्रकृति और सम्यगमिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय है । आहारककाययोगी जीवोंके अट्ठाईस प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके अट्ठाईस प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा कार्मण काययोगी जीवोंके अट्ठाईस प्रकृतियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है। विशेषार्थ-पांचों मनोयोग, पांचों वचनयोग, औदारिककाययोग, वैक्रियिककाययोग और आहारककाययोग इन सबका जघन्य काल एक समय और औदारिककाययोगको छोड़कर शेष सभीका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा औदारिककाययोगका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है। उक्त योगोंका जघन्य काल एक समय योगपरावृत्ति, गुण परावृत्ति, मरण और व्याघातकी अपेक्षा बताया है। पर यहां योगपरावृत्ति और गुणपरावृत्तिकी अपेक्षा एक समय सम्बन्धी प्ररूपणासे प्रयोजन नहीं है, क्योंकि इनकी अपेक्षा योगोंकी एक समय सम्बन्धी प्ररूपणा आश्रयभेद पर अवलम्बित है, वास्तवमें वहां प्रत्येक योग अन्तर्मुहूर्त काल तक ही रहता है। अब रही मरण और व्याघातकी बात सो पांचों मनोयोग और पांचों वचनयोगका जघन्य काल एक समय मरण और व्याघात दोनों प्रकारसे बन जाता है पर औदारिककाययोग और वैक्रियिककाययोगका जघन्य काल एक समय केवल मरणकी अपेक्षा और आहारककाययोगका जघन्य काल मरण और अद्धाक्षयकी अपेक्षा प्राप्त होता है। औदारिकमिश्रका कपाट समुद्धातकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है, पर उसकी यहां विवक्षा नहीं है, क्योंकि केवली जिनके मोहकी अट्ठाईस प्रकृतियोंका सत्त्व नहीं पाया जाता, अतः यहां औदारिकमिश्रका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त लेना चाहिये । वैक्रियिकमिश्रकाययोग और आहारकमिश्रकाययोगका जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकारका काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा कार्मणकाययोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है। इसप्रकार योगोंके इन कालोंकी • अपेक्षा मोहकी सभी प्रकृतियोंका काल यहां कहा है। इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोग और वैक्रियिकमिश्रकाययोगवाले जीवके सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य काल एक समय भी बन जाता है। सामान्य काययोगमें छब्बीस प्रकृतियोंकी जो एक समय सम्बन्धी प्ररूपणा की है वह उन प्रकृतियोंके क्षय होनेके अंतिम समयमें काययोगके प्राप्त होनेकी अपेक्षासे की है। यद्यपि उस जीवके काययोग अन्तर्मु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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