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________________ ८५ गा० २२ उत्तरपयडिविहत्तीए समुक्तित्तणाणुगमो पंचिंदियअपज०-पंचकाय०-बादर-सुहुम-पज०-अपज-तंस०- [अपजत्त-मदि-सुदअण्णाणि-विभंग-मिच्छाइष्ठि-असण्णि] त्ति वत्तव्वं । आहार-आहारमिस्स० पढमपुढविभंगो। इत्थिवेदएसु मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-बारसकसाय-णqसयवेद० अस्थि विहत्ति० अविहत्ति । चत्तारिसंजलण-छण्णोकसाय-पुरिसित्थिवेदाणं अस्थि विहत्ति । पुरिसवेदएसु मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-बारसकसाय-अहणोकसाय० अत्थि विहात्ति अविहत्ति०, पुरिस० चदुसंजलण० अस्थि विहत्ति० । णसं० [मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-वारसकसाय]-इस्थि० अस्थि विहत्ति० अविहत्ति०, चत्तारिसंजलण-दोवेद-छण्णोकसाय० अस्थि विहत्ति०।अवगदवेद०चदुवीसणं अत्थि विहत्ति० अविहत्ति०। अणंतास्थावरकाय और उनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त, स लब्धपर्याप्तक, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके कहना चाहिये।। विशेषार्थ-उपर्युक्त मार्गणास्थानों में सादि मिथ्यादृष्टि होते हुए जिन जीवोंने सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर दी है उनके इन दो प्रकृतियोंका अभाव होता है तथा जिन जीवोंने इन दो प्रकृतियोंकी उद्वेलना नहीं की है उनके इनका सत्त्व होता है। इस प्रकार उपर्युक्त मार्गणाओंमें छब्बीस और अट्ठाईस प्रकृतियोंका सत्त्व पाया जाता है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके प्रकृतियोंका सत्त्व पहली पृथिवीके समान कहना चाहिये । अर्थात् जिस प्रकार पहले नरकमें दर्शनमोहनीयकी तीन और अनन्तानुबन्धीकी चार इन सात प्रकृतियोंका सत्त्व है और नहीं भी है, तथा शेष इक्कीस प्रकृतियोंका सत्त्व ही है उसी प्रकार उक्त दोनों काययोगी जीवोंके जानना चाहिये। स्त्रीवेदी जीवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, सन्यग्मिथ्यात्व, संज्वलन चारके बिना शेष बारह कषाय और नपुंसक वेद इन सोलह प्रकृतियोंके विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव हैं। तथा चार संज्वलन, छह नोकषाय, पुरुषवेद और स्त्रीवेद इन बारह प्रकृतियोंके विभक्तिवाले ही हैं। पुरुषवेदियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व, संज्वलन चारके बिना शेष बारह कषाय और पुरुषवेदके बिना आठ नो कषाय इन तेईस प्रकृतियोंके विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव हैं। तथा पुरुषवेद और चार संज्वलन इन पांच प्रकृतियोंके विभक्तिवाले ही जीव हैं। नपुंसकवेदियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति सम्यग्मिथ्यात्व, चार संज्वलनके बिना बारह कषाय और स्त्रीवेद इन सोलह प्रकृतियोंके विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव हैं। तथा चार संज्वलन, पुरुष और नपुंसक ये दो वेद और हास्यादि छह नो कषाय इन बारह प्रकृतियोंके नियमसे विभक्तिवाले जीव हैं। अपगतवेदियोंमें चौबीस प्रकृतियोंके विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव हैं। पर (१) तस०... (त्रु० १९) त्ति-स०। (२) णवूस. . . . . (त्रु० १४) इत्मि-स। Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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