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________________ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [ पयडिविहत्ती २ विहत्ति ० अविहत्ति० । णुबंधिचउकस्स विहत्तिया णियमा अत्थि [ णत्थि ]। एवमकसायि० जहाक्खाद० । ९ १०३. कसायाणुवादेण कोधकसाईणं पुरिसभंगो । वरि पुरिस० अत्थि विहति० अविहत्ति ० । एवं माणकसाईणं । णवरि कोह० अस्थि एवं मायाकीणं [वरि माण०] अत्थि विहत्ति ० अविहत्ति ० वरि माय० अस्थि विहत्ति० अविहत्ति० । एवं सामाइय छेदो० वत्तव्वं । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले जीव नियमसे नहीं हैं । अपगतवेदियोंके समान अकषायी और यथाख्यातसंयत जीवोंके कहना चाहिये । । एवं लोभकसायी० । विशेषार्थ - क्षपकश्रेणी पर चढ़े हुए जीवके स्त्रीवेदकी उदयव्युच्छित्तिके पहले चार संज्वलन, हास्यादि छह नोकषाय, पुरुषवेद और स्त्रीवेद इन बारह प्रकृतियोंको छोड़कर शेष सोलह प्रकृतियोंका क्षय हो जाता है, अतः स्त्रीवेदीके उक्त बारह प्रकृतियोंका सत्त्व नियमसे है तथा शेषका सत्त्व है और नहीं है । इसी प्रकार नपुंसकवेदीके जानना चाहिये । पर इतनी विशेषता है कि नपुंसक वेदीके स्त्रीवेद के स्थान में नपुंसकवेदका सत्त्व कहना चाहिये । पुरुषवेदीके पुरुषवेदका उदय रहते हुए चार संज्वलन और पुरुषवेदका क्षय नहीं होता । शेषका हो जाता है । अतः पुरुष वेदीके उक्त पांच प्रकृतियोंको छोड़कर शेष तेईस प्रकृतियों का सत्त्व है भी और नहीं भी है पर उक्त पांच प्रकृतियोंका सत्त्व नियमसे है । द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके साथ उपशम श्रेणी पर आरूढ़ होकर जो जीव अपगतवेदी हो जाता है उसके चार अनन्तानुबन्धीको छोड़ कर शेष चौबीस प्रकृतियोंका सत्त्व पाया जाता है, अतः अपगतवेदी जीवके अनन्तानुबन्धी चारको छोड़कर शेष चौबीस प्रकृतियोंका सत्त्व है भी और नहीं भी है । पर चार अनन्तानुबन्धीका सत्त्व नियमसे नहीं है । अकषायी और यथाख्यातसंयतोंके अपगतवेदियोंके समान जानना चाहिये । दर्द ९१०३. कषायानुवादकी अपेक्षा क्रोध कषायवाले जीवोंके पुरुषवेदियोंके समान कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि ये पुरुषवेदकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले हैं। इसी प्रकार मानकषायवाले जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मानकषायवाले जीव क्रोध कषायकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले हैं । इसी प्रकार मायाकषायवाले जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि माया कषायवाले जीव मानकषायकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले हैं । इसी प्रकार लोभकषायवाले जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि लोभकषायवाले जीव मायाकषायकी विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले हैं । इसी प्रकार सामायिक और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके कहना चाहिये । विशेषार्थ - क्षपक श्रेणी पर चढ़े हुए जीवके अवेदभाग में क्रमसे क्रोध, मान और मायाका और सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान में लोभका क्षय होता है अतः क्रोधवेदक के पुरुषवेदका, मानवेदकके (१) - ईणं (त्रु० ५) अस्थि- स० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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