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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । पयडिविहत्ती २ ६३७७. अभव्यसिद्धि० छव्वीस० के० ? सव्वद्धा । वेदय० अट्ठावीसचउवीस० के० १ सव्वद्धा । तेवीस-बावीस० ओघभंगो । खइय० एक्कवीस. के. ? सव्वद्धा । सेसप० ओघभंगो। उवसम० अठ्ठावीस० के०? जह० अंतोमु० उक्क. पलिदो० असंखे० भागो । चउवीस० के० ? जह० अंतोमु० उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । सासण. अहावीस० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। सम्मामि० अठ्ठावीस-चउवीस० के० ? जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अणाहारिय० कम्मइयभंगो।। एवं कालो समत्तो। ६३७८, अंतराणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण अहाहोता यह सिद्ध हुआ। शेष कथन सुगम है। ६३७७. अभव्योंमें छब्बीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? सर्व काल है। वेदक सम्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस और चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? सर्व काल है। तेईस और बाईस विभक्तिस्थानवाले वेदक सम्यग्दृष्टियोंका काल ओपके समान है । क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंमें इक्कीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका कितना काल है ? सर्व काल है । तथा शेष पदोंका काल ओघके समान है। उपशम सम्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। तथा चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भाग है। सासादन सम्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके अट्ठाईस और चौबीस विभक्तिस्थानवाले जीवोंका काल कितना है ? जघन्यकाल अन्तर्मुहूते और उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । तथा अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगियोंके समान कहना चाहिये। विशेषार्थ-उपशम सम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि ये तीन सान्तर मार्गणाएं हैं अत: इनमें अपने अपने विभक्तिस्थानोंका यथायोग्य जघन्यकाल प्राप्त हो जाता है । तथा उत्कृष्टकाल जो पल्यके असंख्यावें भाग प्रमाण कहा सो इसका कारण यह है कि उक्त मार्गणास्थानवाले जीव निरन्तर इतने काल तक होते रहते हैं। अतः इनमें सम्भव विभक्तिस्थानोंका काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण बन जाता है। शेष कथन सुगम है। इस प्रकार कालानुयोगद्वार समाप्त हुआ। ६३७८. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ निर्देश और आदेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001408
Book TitleKasaypahudam Part 02
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages520
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size12 MB
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